________________ 80 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा हो - यह संभव है; अतः उसका वाचन किये बिना मैं इसके अपेक्षित बिन्दुओं को लेकर 'तृतीय वर्ग' को ही आपके समक्ष प्रस्तुत करूगा / प्रथम वर्ग : पर्याय का स्वरूप (क) व्युत्पत्तियों एवं निरुक्तियों के आलोक में - (1) परि समन्तादायः पर्यायः / अर्थात् जो सब ओर से भेद को प्राप्त करे, वह पर्याय है।' (2) स्वभावविभावरूपतया याति पर्येति परिणमतीति पर्याय इति पर्यायस्य व्युत्पत्ति / अर्थात् जो स्वभाव-विभाव रूप से गमन करती है, या परिणमन करती है, वह पर्याय है। (ख) समानार्थक शब्दों के आलोक में - (1) पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः / अर्थात् पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है। (2) ववहारो या वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति एयो / अर्थात् व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय ये सब एकार्थवाची हैं / (3) पर्यवः पर्यवः पर्याय इत्यनर्थान्तरम् / अर्थात् पर्याय, पर्यव और पर्याय में भी एकार्थवाची (4) अपि चांशः पर्यायो भागो हारोविधा प्रकारश्च / भेदश्छेदो भंगः शब्दाश्चैकार्थवाचका एते / अर्थात् अंश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार, भेद, छेद और भंग - ये सब एक ही अर्थ के वाचक हैं / (ग) परिभाषाओं के आलोक में - (1) तद्भावः परिणामः / अर्थात् गुणों के परिणमन को पर्याय या परिणाम कहते हैं 7 (2) व्यतिरेकिणः पर्यायः / अर्थात् पर्यायें व्यतिरेकी होती हैं। (3) पदार्थास्तेषामवयवा अपि प्रदेशाख्याः परस्परव्यतिरेकित्वापर्याया उच्यन्ते / अर्थात् पदार्थों के जो अवयव हैं, वे भी परस्पर व्यतिरेकयुक्त होने से पर्याय कहलाते हैं / (4) क्रमवर्तिनः पर्याय / अर्थात् एक पर्याय के बाद दूसरी पर्याय क्रमपूर्वक होती है, अतः पर्याय क्रमवर्ती कहलाती है / 10 (5) एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत् / अर्थात् एक ही द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणामों को पर्याय कहते हैं, जैसे-आत्मा में होने वाले हर्ष-विषाद के परिणाम / "