________________ 79 'पर्याय' की अवधारणा में निहित दार्शनिक मौलिकता एवं विशेषता परिवर्तनों को मायाजन्य प्रतिभास या विवर्तवाद के रूप में कहकर, पर्यायपक्ष से अपना पल्ला झाड़ बैठे। किसी-किसी दर्शन ने वस्तु की नित्यानित्यात्मकता को अपनाना तो चाहा, किन्तु अनेकान्तात्मक दृष्टि के अभाव में उनका प्ररूपण भी इसी प्रकार रहा, जैसे कि किसी जगह नौकरी के लिए 25 वर्ष की आयु का व्यक्ति अपेक्षित हो, और कोई 12 एवं 13 वर्ष के दो बच्चों को ले जाकर, उनका आयु-योग करके दोनों को एक व्यक्ति के वेतन पर नौकरी में लगा लेने का अनुरोध करे / क्योंकि वे किसी एक पदार्थ को तो नितान्त अपरिवर्तनशील कूटस्थ नित्य बताते हैं, कुछ पदार्थों को मात्र विकार या परिणामस्वभावी बताते हैं, कुछ को मात्र परोत्पादन-सामर्थ्य का धनी होते हुए भी अपरिणामी मानते हैं तथा कुछ को प्रकृतिविकृतिस्वरू कहते हैं / आप सभी विद्वान 'सांख्यकारिका' की इस कारिका से परिचित होंगे - "मूलप्रकृतिरविकृतिः महदाद्यः प्रकृतिविकृतयः सप्त / षोडशकस्तु विकाराः न प्रकृतिनिविकृतिः पुरुषः // " इन सबके मेल से भी कोई भी द्रव्य अनेकान्त्मक द्रव्य-पर्याय-स्वरूप सिद्ध नहीं होता है। जैनदर्शन में पर्याय की अवधारणा पूर्णतः मौलिक एवं विशिष्ट है। चूंकि जैनदर्शन में वस्तुस्वरूप की आधारभित्ति ही अनेकात्मक मानी गयी है; अतः यह अनेकान्तात्मकता पर्याय में भी स्वतः पर्यवसित होती है / पर्याय का स्वरूप क्षणिक या परिवर्तनमात्र होते हुए भी वह संपूर्ण वस्तु नहीं है, वस्तु का अंश है तथा नित्य या अपरिवर्तनशील पक्ष से पूर्ण सामंजस्य रखते हुए वह अपना स्वरूप अविरोधीभाव से सुरक्षित रखती है / यद्यपि दार्शनिक-दृष्ट्या पर्याय को क्षणस्थायी या परिवर्तनमात्र कहा गया है, तथापि यहाँ भी अनेकान्तमात्मकता व्यापक रूप से परिलक्षित होती है / 'कारणशुद्धपर्याय' जैसे पक्ष अपेक्षाकृत नित्यरूप होकर भी 'पर्याय' संज्ञा धारण करते हैं तथा सामान्य पर्यायों को 'अनित्य' कहा ही गया है। इसी प्रकार कुछ पर्यायें क्रमभावी हैं, तो कुछ सहभावी हैं। कुछ द्रव्य पर्यायें हैं, तो कुछ गुण पर्यायें हैं। कुछ समानजातीय पर्यायें हैं, तो कुछ असमानजातीय हैं। इन्हीं सबके विवेचन पर पर्याय की द्रव्य से भेदाभेदात्मक दृष्टि से अनेकान्तात्मक एवं मौलिक स्वरूप की दृष्टि से अनेकान्तात्मकता प्रमाणित होती है। जैनदर्शनोक्त 'पर्याय' की अवधारणा को इस अनेकान्तात्मक दृष्टि के आलोक में समग्रतः एवं बिन्दुशः देखे बिना समझ पाना भी संभव नहीं है, समझा पाना तो अपेक्षाकृत दूर की बात है। अतः मैं अपने आलेख के तीन वर्ग कर रहा हूँ। 'प्रथम वर्ग' में पर्याय का व्युत्पत्ति, निरुक्ति, समानार्थक शब्द एवं परिभाषा के द्वारा परिचय दूंगा / 'द्वितीय वर्ग' में उसके भेद-प्रभेदों को संक्षिप्त रूप में बताने की चेष्टा करूंगा। तथा 'तीसरे वर्ग' में 'पर्याय की अवधारणा' में निहित मौलिकता एवं विशेषता के रूप में उसकी अनेकान्तात्मकता को स्पष्ट करने की नैष्ठिक चेष्टा करूंगा। इनमें से प्रथम एवं द्वितीय वर्ग तो दार्शनिक ग्रंथों में उपलब्ध विवरणों को ही प्रस्तुत करेंगे / तथा तृतीय वर्ग में आगमिक तथ्यों के आलोक में अपने प्रतिपाद्य को स्पष्ट करने का यत्न होगा / यद्यपि प्रथम एवं द्वितीय वर्ग की सामग्री अन्य मनीषियों द्वारा इस संगोष्ठी में मेरे से पूर्व प्रस्तुत की जा चुकी