________________ जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा "अवरा पज्जायढिदि खणमेत्तं होदि तं च समओ त्ति / " अर्थात् पर्याय की स्थिति क्षणमात्र होती है, जिसे समय भी कहते हैं / हमारे उक्त सम्पूर्ण कथन का सारांश यही है कि प्रत्येक पर्याय का काल परमार्थतः एक समय ही होता है, एकाधिक कथमपि नहीं; जहाँ एकाधिक कहा गया है, वहाँ सादृश्य का उपचार समझना चाहिए। 2. सहभावी पर्याय किसे कहते हैं - शास्त्रों में पर्याय के भेद-अभेद के प्रसंग में पर्याय के निम्नलिखित दो भेद भी बताये गये हैं - सहभावी पर्याय और क्रमभावी पर्याय / इनमें से क्रमभावी पर्याय ही वास्तव में पर्याय है, सहभावी पर्याय कोई पर्याय नहीं है, अपितु गुण है, जैसा कि "सहभुवो गुणाः क्रमवर्तिनः पर्यायाः"५ इत्यादि अनेक शास्त्र-प्रमाणों से अत्यन्त स्पष्ट है, तथापि उसे एक अन्य विशेष विवक्षा से ही 'पर्याय' संज्ञा दी गई है। दरअसल, 'पर्याय' शब्द का एक अर्थ 'विशेष' भी है, जैसा कि पर्याय के नामान्तर बताते समय स्पष्ट ज्ञात होता है। और इसी विशेष के अर्थ में आचार्यों ने 'गुण' को भी 'पर्याय' संज्ञा से सम्बोधित कर दिया है; परन्तु वास्तव में सहभावी पर्याय कोई पर्याय नहीं है, क्योंकि वह परिणमन रूप नहीं है, क्षणभंगुर नहीं है / यह किसी द्रव्य या गुण का विकास (विशेष कार्य) भी नहीं है; अतः उसे 'पर्याय' नाम देखकर भ्रमित नहीं होना चाहिए और उसे गुण ही समझना चाहिए / 3. कारणशुद्धपर्याय क्या है - कारणशुद्धपर्याय का उल्लेख नियमसार आदि कतिपय ग्रन्थों में ही उपलब्ध होता है, तथापि यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय है / विशेषतः आध्यात्मिक विषयों के पाठकों के लिए तो यह विषय विशेष लाभकारी माना जाता है। सहभावी पर्याय की भाँति कारणशुद्धपर्याय भी वस्तुतः पर्याय नहीं है, क्योंकि वह किसी द्रव्य या गुण के विकार (विशेष कार्य) रूप नहीं है, अपितु द्रव्य का त्रैकालिक शुद्ध स्वभाव है। इसके विशेष स्पष्टीकरण हेतु 'नियमसार' की (विशेषकर १५वीं गाथा का) पद्मप्रभमलधारिदेव कृत संस्कृत-टीका-सहित अध्ययन करना चाहिए / संदर्भ 1. 'समय' काल की सबसे छोटी इकाई मानी गई है, जिसकी परिभाषा है - णहएयपएसत्थो परमाणुमंदगइवढ्तो / बीयमणंतरेखत्तं जावदियं जादि तं समयकालं / ' - माइल्लधवल, द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 139 अर्थात् आकाश के एक प्रदेश में स्थित परमाणु मंद गति से चलकर, जितने काल से दूसरे प्रदेश में पहुंचता है, उसे समय कहते हैं।