________________ 70 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा "अपि चांशः पर्यायो भागो हारो विधा प्रकारश्च / भेदश्छेदो भंगः शब्दाश्चैकार्थवाचका एते // "10 ___ अर्थ :- अंश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार, भेद, छेद और भंग - ये सब एक ही अर्थ के वाचक है। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि उक्त चारों उद्धरणों में पर्याय के नामान्तरों में अंश, भाग आदि को भी गिनाया गया है और पर्याय शब्द का सामान्य अर्थ 'वस्तु का अंश' होता भी है, परन्तु यहाँ हम जिस पर्याय को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं, वह वस्तु का कोई-सा भी अंश नहीं है, अपितु मात्र व्यतिरेकी अंश है / और ऐसा रुढिवशात् ही है, ऐसा समझना चाहिए / इसी तथ्य को क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ने भी अच्छी तरह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है : पर्याय का वास्तविक अर्थ वस्तु ढका अंश है। ध्रुव, अन्वयी, सहभूत तथा क्षणिक, व्यतिरेकी या क्रमभावी के भेद से वे अंश दो प्रकार के होते हैं / अन्वयी को गुण और व्यतिरेकी को पर्याय कहते हैं / वे गुण के विशेष परिणमनरूप होती हैं / अंश की अपेक्षा यद्यपि दोनों ही अंश पर्याय हैं, पर रूढ़ि से केवल व्यतिरेकी अंश को ही पर्याय कहना प्रसिद्ध है / "11 पर्याय के भेद जैनाचार्यों ने पर्याय के भेदों का निरूपण अनेक प्रकार से किया है / यथा - (1) "यः पर्यायः सः द्विविधः क्रमभावी सहभावी चेति / "12 / अर्थ :- जो पर्याय है, वह क्रमभावी और सहभावी - इस तरह से दो प्रकार की है। (2) "द्विधा पर्याया द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्च / 13 अर्थ :- पर्याय दो प्रकार की है - द्रव्यपर्याय और गुण पर्याय / (3) "अथवा द्वितीयप्रकारेणार्थव्यञ्जनपर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवन्ति / "14 अर्थ :- अर्थपर्याय व व्यञ्जनपर्याय के भेद से भी पर्याय दो प्रकार की होती है / (4) "पर्यायास्ते द्वधा स्वभावविभावापर्यायभेदात् / "15 अर्थ :- पर्याय दो प्रकार की है - स्वभावपर्याय और विभावपर्याय / (5) "स्वभावपर्यायस्तावत् द्विप्रकारेणोच्यते कारणशुद्धपर्यायः कार्यशुद्धपर्यायश्चेति / "16 अर्थ :- स्वभावपर्याय दो प्रकार की कही जाती है - कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय /