________________ 72 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा (ग) अर्थपर्याय एवं व्यञ्जनपर्याय - अर्थपर्याय अत्यन्त सूक्ष्म होती है। उसे आगम-प्रमाण से ही जाना जा सकता है / वह प्रत्येक द्रव्य के प्रत्येक गुण में प्रतिसमय होती रहती है / तथा व्यञ्जनपर्याय स्थूल है, प्रकट है और चिरस्थायी अर्थपर्याय एवं व्यञ्जनपर्याय का स्वरूप जैन-ग्रन्थों में इस प्रकार समझाया गया है - "सुहुमा अवायविसया खणखइणो अत्थपज्जया दिट्ठा / वंजणपज्जाया पुण थूला गिरगोयरा चिरविवत्था // "21 __ अर्थ :- अर्थपर्याय सूक्ष्म है, अवाय(ज्ञान) विषयक है - शब्द से नहीं कही जा सकती है और क्षण-क्षण में बदलती है; किन्तु व्यञ्जनपर्याय स्थूल है, शब्दगोचर है - शब्द से कही जा सकती है और चिरस्थायी है। पर्याय और क्रिया में अन्तर - पर्याय को कुछ लोग सामान्य अपेक्षा से क्रिया भी कह देते हैं, पर वस्तुतः पर्याय एवं क्रिया में बड़ा अन्तर है / क्रिया हलन-चलन रूप परिणमन को ही कहते हैं, परन्तु पर्याय वस्तु के प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म परिणमन का नाम है / श्रीमद् भडकलंकदेव ने भी 'तत्त्वार्थवार्तिक' में इस विषय को इस प्रकार स्पष्ट किया है - "भावो द्विविधः परिस्पन्दात्मकः अपरिस्पन्दात्मकश्च / तत्र परिस्पन्दात्मकः क्रियेत्याख्यायते, इतरः परिणामः / "22 अर्थात् भाव दो प्रकार के होते हैं - परिस्पन्दात्मक और अपरिस्पन्दात्मक / परिस्पन्दात्मक को क्रिया कहते हैं और अपरिस्पन्दात्मक को परिणाम (पर्याय) / इससे स्पष्ट है कि क्रिया और परिणाम में बड़ा अन्तर है / पर्याय इस परिणाम का ही नाम है। संदर्भ 1. देखिए आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित 'आप्तमीमांसा' के तृतीय परिच्छेद की कारिका 37 से 60 जिनमें इस विषय को अनेक तर्कों द्वारा स्पष्ट किया गया है। 2. तत्त्वार्थसूत्र 5/30 3. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृष्ठ 1/357 4. घटमौलिसुर्वणार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयं / शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् / / पयोव्रतो न दध्यति न पयोत्ति दधिव्रतः / अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकं // " - आप्तमीमांसा, कारिका 59-60