________________ 69 जैनदर्शन में पर्याय का स्वरूप यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि उक्त दोनों उदाहरण बहुत स्थूल हैं / यदि सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो विश्व के प्रत्येक पदार्थ में प्रतिसमय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की उपलब्धि होती है / सूक्ष्मपरिणमन हमारे अल्पज्ञान में पकड़ में नहीं आता, अतः उदाहरण स्थूल परिणमन के दिये गये हैं। ___ इस प्रकार यह सुस्पष्ट है कि प्रत्येक वस्तु सदैव उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्त अथवा द्रव्यपर्यायात्मक है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में यही दो अंश नियम से पाये जाते हैं / एक अन्वय रूप और दूसरा व्यतिरेक रूप / 'यह वही है, वही है' - ऐसी प्रतीति जिसमें है, उसे अन्वय कहते हैं और 'यह वह नहीं है, वह नहीं है" - ऐसी प्रतीति जिसमें होती है, उसे व्यतिरेक कहते हैं / वस्तु में रहने वाले शाश्वत नित्य या अन्वय रूप अंश को द्रव्य कहते हैं और क्षणिक परिवर्तनशील या व्यतिरेकी अंश को पर्याय कहते हैं। 'पर्याय' का निरुक्त्यर्थ - विक्रम की सातवीं शताब्दी के दिग्गज आचार्य श्रीमद्भाकलंकदेव ने पर्याय की निरुक्ति इसी प्रकार की है - "परिसमन्तादायः पर्याय / 5 अर्थात् जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त करे, वह पर्याय है। इसी प्रकार आचार्य देवसेन भी 'आलाप-पद्धति' में लिखते हैं - "स्वभावविभावरूपतया याति पर्येति परिणमतीति पर्यायः इति पर्यायस्य व्युत्पत्तिः / " अर्थात् जो स्वभाव-विभाव रूप से गमन करती है, परिणमन करती है, वह पर्याय है / पर्याय के नामान्तर - जैन-ग्रन्थों में पर्याय के अनेक नामान्तर गिनाये गये हैं / यद्यपि आचार्यों द्वारा पर्याय के लिए इन नामान्तरों का प्रयोग कहीं-कहीं ही किया गया है, तथापि पर्याय के स्वरूप परिज्ञानार्थ इन नामान्तरों का भी ज्ञान होना आवश्यक है / यथा - "पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः / " अर्थात् पर्याय, विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति - इन सबका एक अर्थ है / "ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओ त्ति" अर्थ :- व्यवहार, विकल्प और पर्याय - ये सब एकार्थवाची हैं / "पर्ययः पर्यवः इत्यनर्थान्तरम् / " अर्थ :- पर्यय, पर्यव और पर्याय - ये एकार्थक हैं /