________________ जैनदर्शन में पर्याय का स्वरूप वीरसागर जैन 'पर्याय' - जैनदर्शन का एक अति सूक्ष्म विषय है / इसे समझने के लिए सर्वप्रथम वस्तु का स्वरूप समझना आवश्यक है, क्योंकि पर्याय वस्तु का ही एक अंश है / जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है, अतः उसके दो मुख्य हिस्से (अंश) हैं - एक द्रव्यरूप और दूसरा पर्यायरूप। वस्तु के नित्य अंश को द्रव्य कहते हैं और अनित्य अंश को पर्याय, अतः हम इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु नित्यानित्यात्मक है। सांख्यदर्शन में वस्तु को सर्वथा नित्य स्वीकार किया गया है और बौद्धदर्शन में वस्तु को सर्वथा अनित्य स्वीकार किया गया है, परन्तु जैनदर्शन के अनुसार इस सम्पूर्ण विश्व में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य हो, अपितु प्रत्येक वस्तु नित्यानित्यात्मक है / उसमें एक साथ नित्यता भी है और अनित्यता भी / वस्तुतः कोई भी वस्तु तभी सत् हो सकती है, जब उसमें एक साथ नित्यता और अनित्यता दोनों ही निवास करती हो / एकान्ततः नित्य वस्तु भी कभी सत् नहीं हो सकती और एकान्ततः अनित्य वस्तु भी कभी सत् नहीं हो सकती / क्योंकि सत् का लक्षण ही यह है - "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् / "2 अर्थात् सत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त होता है / प्रत्येक वस्तु में नवीन अवस्था के आगमन को उत्पाद कहते हैं, पूर्व अवस्था के त्याग को व्यय कहते हैं और उत्पाद-व्यय दोनों से रहित वस्तु के स्थिर स्वभाव को ध्रौव्य कहते हैं / इसे हम आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रदत्त दो उदाहरणों द्वारा भली प्रकार समझ सकते हैं / यथा दूध का दही बनाना / तो यहाँ दही अवस्था का उत्पाद हुआ, दूध अवस्था का व्यय हुआ और गौरस ध्रौव्य रहा, क्योंकि उसका न उत्पाद हुआ, न व्यय / इसी प्रकार स्वर्णमय घट का मुकुट बना / यहाँ मुकुट अवस्था का उत्पाद हुआ, घट अवस्था का व्यय और स्वर्ण ध्रौव्य रहा, उसका उत्पाद-व्यय कुछ नहीं हुआ।