________________ 60 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा ज्ञान का विषय बनता है, तब विशेष, अनेक, भेद एवं अनित्य रूप पर्यायों से अभेद बुद्धि हट जातीहै / ज्ञाता स्वसंवेदन ज्ञान से ज्ञायकभाव स्वरूप निज शुद्धात्मद्रव्य में अपनापन स्थापित कर लेता है और उस रूप ज्ञान-आनन्द का स्वाद ग्रहण करता है, जिसे सम्यग्दर्शन कहा जाता है / वास्तव में परभावों में से अहंबुद्धि का विसर्जन हो जाना सच्चा त्याग किंवा सम्यक् दर्शन है। आचार्य जयसेन के शब्दों में "जैसे कोई पुरुष वस्त्र-आभूषणों को, ये पर द्रव्य हैं, ऐसा जानकर, उनका त्याग कर देता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष सभी मिथ्यात्व, राग-द्वेष, मोहादि भावों को - परभावों की पर्यायों को स्व-संवेदन ज्ञान के बल से जानकर विशेष रूप से मन-वचन-काय की शुद्धि पूर्वक त्याग कर देता है / 9 यथार्थ में द्रव्यदृष्टि पुरुषार्थ रूप है, जिसके होने पर संसार की सृष्टि समाप्त होने लगती है। इसके विपरीत पर्याय पर दृष्टि होने से वह अनेक, भेद तथा अनित्यता रूप पर्याय कही जाती है, किन्तु द्रव्य पर दृष्टि होने पर वह सामान्य, एक, अभेद एवं नित्यता रूप 'द्रव्य' कही जाती है, जो संसार का अभाव करने में निमित्त होती है / पर्यायदृष्टि होने के कारण परमात्मा की अनुभूति रूप श्रद्धा से विमुख आठ मद, आठ मल, छ: अमायतन, तीन मूढ़ता इन 25 दोषों से जो युक्त है, आत्मा-परमात्मा तथा तत्त्वार्थ का जिसके श्रद्धान नहीं है, वह मिथ्यादृष्टि है / क्योंकि वह शरीरादि पर्यायों में आसक्त है / राग, द्वेष, मोह आदि परभावों में और पर-पदार्थों में उसकी अपनत्व बुद्धि होने के कारण वह तरह-तरह के कर्मों का बन्ध करता है और संसार में भटकता फिरता है / इस राग-द्वेष संसार का अभाव करने के लिए द्रव्य-गुण-पर्याय को समझकर पर्यायदृष्टि को भ्रान्ति जानकर द्रव्यदृष्टि होना सर्वप्रथम आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। अध्यात्म ग्रन्थों में तो यहाँ तक कहा गया है कि जब तक मिथ्या अभिप्राय युक्त राग-द्वेष-मोह को अपनाने की बुद्धि है, गुण-पर्यायों रूप अपने को समझते रहोंगे, तब तक शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती अर्थात् परमात्मस्वरूप व्यक्त नहीं हो सकता / इस प्रकार अनित्य पर्यायों का ज्ञान केवल जानने के लिए है, राग-द्वेषमोह भाव कर उनमें स्थिरता या रमणता प्राप्त करने के लिए नहीं है / रमने के लिए तो ज्ञानानन्द स्वभावी आतमराम है और इसमें स्थिर होकर सदा के लिए कर्मों से निर्मुक्त हो सकते हैं / पर्याय की स्वतन्त्रता जैनदर्शन में 'द्रव्य' का निर्वचन नित्य परिणामी किया गया है। दार्शनिक दृष्टि से सम्पूर्ण विश्व 'ज्ञान' और 'ज्ञेयतत्व' में अन्तर्भूत हो जाता है। ज्ञान सर्वगत है और आत्मा ज्ञान प्रमाण है / ज्ञेय सम्पूर्ण सत् है / ज्ञेय लोक और अलोक के विभाग में विभक्त है / लोक में छहों प्रकार के द्रव्य देखे जाते हैं। त्रिलोक-त्रिकालवर्ती सभी पदार्थों को अपनी स्वच्छता से प्रतिबिम्बित करने के कारण ज्ञान सर्वगत कहा जाता है / ज्ञान की व्यापकता होने से ज्ञानमय आत्मा को भी व्यापक कहा गया है / यथार्थ में न ज्ञान में ज्ञेय प्रवेश करता है और न ज्ञेय में ज्ञान प्रवेश करता है / आत्मा और पदार्थ अपने-अपने अस्तित्व के कारण एक दूसरे में नहीं वर्तते हैं / क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अन्य द्रव्यों से भिन्न है / आत्मा ज्ञान की ज्ञाता अपने स्वयं के प्रदेशों में ही रहकर अपने आप के परिणाम को ही जानता है। वस्तुतः ज्ञान और ज्ञेय का ऐसा स्वभाव है कि ज्ञान में ज्ञेय प्रतिबिम्बित होते हैं, जो ज्ञान की स्वच्छता का परिणाम है।