________________ पर्याय की अवधारणा व स्वरूप 61 यथार्थ में ज्ञान अखण्ड एक प्रतिभासस्वरूप है / यद्यपि जानने वाला कोई एक आत्मा ज्ञान कहा जाता है, किन्तु स्वयं से ही उत्पन्न स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ज्ञान स्वाधीन होने से आनन्दरूप होता है / इन्द्रियज्ञान परोक्ष कहा गया है और अतीन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष तथा वास्तविक ज्ञान है। इसका विशद, सूक्ष्म, गम्भीर तथा तर्कयुक्त विवेचन "प्रवचनसार" में किया गया है / आचार्य कुंदकुंद के शब्दों में - अत्थो खलु दव्यमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि / तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमय // प्रवचनसार, गा.९३ अर्थात्-वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है। पदार्थ द्रव्यस्वरूप है / द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं और द्रव्य तथा गुणों से पर्याय होती है / जो पर्याय पर मोहित होकर, उसका ही अवलम्बन लेते हैं, वे मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं। जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय के आधार पर तत्त्व-मीमांसा की गई है। उसमें द्रव्य, गुण और पर्याय 'अर्थ' नाम से कहे गये हैं / द्रव्य, गुण और पर्याय में अभिधेय-भेद होने पर भी अभिधान का अभेद होने से वे 'अर्थ' हैं / 52 इनको 'अर्थ' कहने पर भी ये 'सत्' द्रव्य ही हैं / क्योंकि गुण और पर्याय सीधे नहीं जाने जाते हैं, किन्तु गुण और पर्याय रूप से द्रव्य के ज्ञात होने पर गुण तथा पर्याय का जानना कहा जाता है। 'अर्थ' की निरुक्ति है - 'अर्थ्यते प्राप्यते इति अर्थ जो प्राप्त किया जाये, वह अर्थ है / अतः जो गुण पर्यायों को प्राप्त करे, वह अर्थ द्रव्य है तथा आश्रयभूत अर्थों के द्वारा जो प्राप्त किया जाये, वह अर्थगुण है एवं क्रम-परिणाम से द्रव्य के द्वारा जो प्राप्त हो वह पर्याय है। सभी द्रव्य स्वतन्त्र सत् हैं / प्रत्येक द्रव्य अपने ही स्वरूप से है / संक्षेप में, स्वभाव में नित्य रहने वाला सत् द्रव्य है / उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का एकत्वस्वरूप परिणाम द्रव्य का स्वभाव है। द्रव्य के प्रदेश विस्तारक्रम में जाने जाते हैं / द्रव्य की पर्यायें प्रवाह-क्रम में जानी जाती हैं / एक प्रदेश की सीमा का अन्त दूसरे प्रदेश की सीमा की आदि है, जब कि द्रव्य वही एक है। इसी तरह एक पर्याय का अन्त दूसरी पर्याय का उत्पाद है। इस प्रकार द्रव्य सत्तासापेक्ष सतत् उत्पादव्ययात्मक है। आचार्य कुन्दकुन्द स्पष्ट रूप से एक ही समय में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों समुदाय को द्रव्य कहते हैं / 53 यद्यपि द्रव्य में नई पर्याय की उत्पत्ति पूर्व पर्याय के विनाश के बिना नहीं होती है, किन्तु जन्म का क्षण भिन्न हो, नाश का क्षण अलग हो और स्थितिक्षण कोई अलग हो, ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिए। क्योंकि द्रव्य में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य एक समय में ही देखे जाते हैं / क्योंकि द्रव्य स्वयं ही गुण से गुणान्तर रूप परिणमित होता है / अतएव गुणपर्यायें एक द्रव्य की ही पर्यायें कही गई हैं / 54 द्रव्य स्वयं अकेला ही पूर्व गुणपर्याय से उत्तर गुणपर्याय रूप में परिणमित होता हुआ सत्ता रूप से वही द्रव्य रहता है / इस प्रकार त्रैकालिक उत्पाद-व्ययों का आधार वही एक सत् है / कोई भी द्रव्य बिना पर्यायों के नहीं होता और कोई भी पर्याय द्रव्य रहित नहीं होती / 55 किसी भी द्रव्य के भाव (सत्) का नाश नहीं होता और अभाव (असत्) की उत्पत्ति नहीं होती / 56 क्योंकि प्रत्येक