________________ पर्याय की अवधारणा व स्वरूप 59 उक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि द्रव्य को समझने के लिए 'पर्याय' का ज्ञान आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है / पर्याय का विवेक हुए बिना द्रव्य की पहचान नहीं हो सकती / इसके अतिरिक्त प्रत्येक द्रव्य में जो कार्य होता है, वह द्रव्य में नहीं; पर्याय में होता है / द्रव्य में तो कुछ हो नहीं सकता है। इसलिए पर्याय में जो शुभ, अशुभ या शुद्ध रूप परिणमन होता है, उसे व्यवहार से उस पर्याय के द्रव्य का परिणमन कहा जाता है / वास्तव में द्रव्य के अंश पर्याय में ही वह परिणमन होता है, लेकिन पर्याय का आधार द्रव्य होने से वह द्रव्य का परिणमन कहा जाता है / 'पर्याय' कथन का प्रयोजन - वस्तु नित्य है, पर पर्याय अनित्य है / परिवर्तनशील इस लोक में सभी प्राणी विभिन्न परिवर्तनों से परिचित हैं / अतः अनित्यता का वास्तविक परिचय देकर नित्यता का ज्ञान कराना चाहते हैं / पर्याय का विशद एवं विस्तार से वर्णन करने के प्रयोजन निम्नलिखित हैं - (1) त्रिकाली ध्रुव, अखण्ड, भगवान आत्मा की पहचान कराना / (2) परमार्थ सत्य का निर्णय कराना / (3) दृष्टि को पर्यायों से हटाकर ज्ञायक स्वभाव पर ले जाना / (4) ज्ञान-दर्शन स्वरूपी वस्तु का यथार्थ बोध कराना / (5) स्वभाव-परभावों का भेद-ज्ञान कराना / (6) शुद्धता का लक्ष स्थापित कराना / (7) अशुद्ध पर्यायों से हटकर शुद्ध रूप होने की प्रेरणा देना / पर्यायदृष्टि और द्रव्यदृष्टि त्रिकाली द्रव्यसामान्य निश्चयनय का विषय है और उसके आश्रय से जो शुद्धपर्याय प्रकट होती है, वह पर्यायनय का विषय है। दोनों का एक साथ मिलाकर कथन करना प्रमाण का विषय है। द्रव्यदृष्टि से एक मात्र शुद्धाशुद्ध पर्याय रहित गौण त्रैकालिक ध्रुवत्व होता है / द्रव्यदृष्टि शुद्ध अन्तस्तत्त्व का ही अवलम्बन करती है / यद्यपि आत्मा को त्रैकालिक प्रतीति करने के लिए ऐसे विकल्प नहीं करने पड़ते हैं कि मैं पूर्व काल में शुद्ध था, वर्तमान में शुद्ध हूँ और भविष्य में शुद्ध रहूँगा / क्योंकि भूतकाल की पर्यायें तो नष्ट हो चुकी हैं और भविष्य की पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं, इसलिए केवल वर्तमान पर्याय ही सम्मुख है जो ज्ञेय है, उपयोग का विषय है / किन्तु वह दृष्टि के लिए विषय नहीं बन सकती है / जैसे काव्य, नाटक में रंगमंच पर अभिनीत दृश्यों के साथ जब तक हमारी भावात्मक एकता स्थापित नहीं होती, साधारणीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं होती, तब तक हमारा उसमें मन नहीं लगता, हमें उसमें रस नहीं आता / अतः दृष्टि का विषय बनने के लिए अन्वयी (द्रव्य) की अखण्डता तथा परिणामों की अखण्डता का होना आवश्यक है / यह अखण्डता तभी हो सकती है, जब हमारी दृष्टि द्रव्यार्थिकनय की विषय बनती है। द्रव्यार्थिक नय में प्रतिपादित सामान्य, अभेद, नित्य और एक अखण्ड द्रव्य जब हमारे