________________ 46 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा हुआ है, उसमें आगम में किंचित् भिन्न अर्थ में पर्याय शब्द का प्रयोग हुआ है / दार्शनिक ग्रन्थों में द्रव्य के क्रमभावी परिणाम को पर्याय कहा गया है तथा गुण एवं पर्याय से युक्त पदार्थ को द्रव्य कहा गया है। वहाँ पर एक ही द्रव्य या वस्तु की विभिन्न पर्यायों की चर्चा है। आगम में तो एक पदार्थ जितनी अवस्थाओं में प्राप्त होता है, उन्हें उस पदार्थ का पर्याय कहा गया है। जैसे जीव की पर्याय है - नारक, देव, मनुष्य, तिर्यंच, सिद्ध आदि / प्रज्ञापनासूत्र के पर्याय पद में जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य और उनके विभिन्न प्रकारों की पर्यायों अर्थात् अवस्थाओं का विस्तारपूर्वक विवेचन है / इसमें उन द्रव्यों को सामान्य अपेक्षा से सम्भावित कितनी पर्यायें होती हैं, इसकी भी चर्चा है / पर्याय, द्रव्य की भी होती है और गुण की भी होती है। गुणों की पर्यायों का उल्लेख अनुयोगद्वारसूत्र में इस प्रकार हुआ है - एक गुण काला, द्विगुण काला यावत् अनन्त काला / इस प्रकार काले गुण की अनन्त पर्यायें होती हैं / इसी प्रकार नीले, पीले, लाल एवं सफेद वर्गों की पर्यायें भी अनन्त होती हैं। वर्ण की भाँति गन्ध, रस, स्पर्श के भेदों की भी एक गुण से लेकर अनन्त गुण तक की पर्यायें होती हैं / उत्तराध्ययनसूत्र में एकत्व, पृथकत्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभाग को पर्याय का लक्षण कहा है / एक पर्याय का दूसरे पर्याय के साथ द्रव्य की दृष्टि से एकत्व (तादात्म्य) होता है, पर्याय की दृष्टि से दोनों पर्याय एक-दूसरे से पृथक् होती है। संख्या के आधार पर भी पर्यायों में भेद होता है। इसी प्रकार संस्थान अर्थात् आकृति की दृष्टि से भी पर्याय-भेद होता है। ज्ञातव्य है कि जैन दर्शन में हम जिसे पर्याय कहते हैं, उसे महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य के पशपाशाह्निक में आकृति कहा है / वे लिखते हैं 'द्रव्य नित्यमाकृतिरनित्या'। जिस पर्याय का संयोग (उत्पाद) होता है, उसका विनाश भी निश्चित रूप से होता है। कोई भी द्रव्य कभी भी पर्याय से रहित नहीं होता / फिर भी द्रव्य की वे पर्यायें स्थिर भी नहीं रहती हैं, वे प्रति समय परिवर्तित होती रहती हैं। जैन दार्शनिकों ने पर्याय परिवर्तन की इन घटनाओं को द्रव्य में होने वाले उत्पाद और व्यय के माध्यम से स्पष्ट किया है। द्रव्य में प्रतिक्षण पूर्व पर्याय का नाश या व्यय तथा उत्तर पर्याय का उत्पाद होता रहता है। उत्पाद और व्यय की घटना जिसमें या जिसके सहारे घटित होती है या जो परिवर्तित होता है, वही द्रव्य हैं / जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य और पर्याय में भी कथंचित् तादात्म्य इस अर्थ में है कि पर्याय से रहित होकर द्रव्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है। द्रव्य की पर्याय बदलते रहने पर भी द्रव्य में एक क्षण के लिए भी ऐसा नहीं होता कि वह पर्याय से रहित हो / सिद्धसेन दिवाकर का कथन है कि न तो पर्यायों से पृथक् होकर द्रव्य अपना अस्तित्व रख सकता है और न द्रव्य से पृथक होकर पर्याय का ही कोई अस्तित्व होता है / सत्तात्मक स्तर पर द्रव्य और पर्याय अलग-अलग सत्ताएँ नहीं है / वे तत्त्वतः अभिन्न हैं, किन्तु द्रव्य के बने रहने पर भी पर्यायों की उत्पत्ति और विनाश का क्रम घटित होता रहता है। यदि पर्यायें उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है, तो उसे द्रव्य से कथंचित भिन्न भी मानना होगा। जिस प्रकार बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था व्यक्ति से अभिन्न होती हैं, किन्तु एक ही व्यक्ति में बाल्यावस्था का विनाश और युवावस्था की प्राप्ति देखी जाती है / अतः अपने विनाश और उत्पत्ति की दृष्टि से वे पर्यायें व्यक्ति से पृथक् ही कही जा सकती हैं / वैचारिक स्तर पर प्रत्येक पर्याय द्रव्य से भिन्नता रखती है / संक्षेप में तात्त्विक स्तर पर या सत्ता की दृष्टि से हम द्रव्य और पर्याय को अलग-अलग नहीं कर सकतें, अतः वे अभिन्न है। किन्तु वैचारिक