________________ 22 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा कि घट पट नहीं है / स्याद्वाद द्वारा यह सापेक्षता अच्छी तरह हो जाती है। इसके अन्तर्गत सभी दृष्टियों को सात प्रमुख दष्टियों में समाहित किया जाता है, जिसे सप्तभंगी नय कहते हैं / ये निम्नलिखित हैं - (1) स्यादस्ति (2) स्यादन्नास्ति (3) स्यादवक्तव्यम् (4) स्यादस्ति नास्ति च (5) स्यादस्ति अवक्तव्यञ्च (6) स्यादन्नास्ति अवक्तव्यम् (7) स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यम् / सत्ता के सर्वागीण ज्ञान व कथन को 'प्रमाण' कहते हैं। इसमें सत्ता के सभी पक्षों का समावेश होना आवश्यक है जो काल,आत्मरूप (गुण), अर्थ (गुणों का आधाररूप द्रव्य), सम्बन्ध, उपकार (औपाधिक गुण), गुणी देश, संसर्ग और शब्द (अस्तित्व) आदि हैं / अपूर्ण ज्ञान व एक दृष्टि से कथन को 'नय' कहते हैं। यह सर्वदेशीय न होकर एकदेशीय होता है तथा अनन्त दृष्टियों में से किसी एक या कुछ दृष्टियों में से किसी एक या कुछ दृष्टियों से ही कथन किया जाता है / परन्तु ऐसे कथन को पूर्ण कहना 'नयाभीस' कहलाता है। नय के दो वर्गीकरण किये गये हैं - सामान्य की दृष्टि से द्रव्यार्थिक नय और विशेष की दृष्टि से पर्यायार्थिक नय / द्रव्य को ही लक्ष्य में रखने वाले नय को द्रव्यार्थिक नय तथा पर्याय को दृष्टि में रखने वाले नय को पर्यायार्थिक नय कहते हैं / द्रव्यार्थिक के तीन प्रकार हैं - नैगम, संग्रह और व्यवहार / पर्यायाथिक के चार प्रकार हैं - ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत / (1) नैगम- नैगम अर्थात् लोक-रूढ़ि या संस्कार से उत्पन्न ज्ञान को नैगम कहते हैं / जो पर्याय अभी निष्पन्न नहीं है, उसे निष्पन्न मानकर व्यवहार करना नैगम नय है / (2) संग्रह - सामान्य धर्म या तत्त्व को लक्ष्य में रखकर किया गया ज्ञान संग्रहनय है / समान धर्म के आधार पर वस्तुओं में एकत्व की स्थापना करना संग्रहनय है / (3) व्यवहार - विशिष्ट धर्मों को दृष्टि में रखकर ज्ञान करना व्यवहारनय है / (4) ऋजुसूत्र - भूत और भविष्य को ध्यान में न रखकर वर्तमान को ही लक्ष्य में रखकर किया गया ज्ञान ऋजुसूत्रनय है / (5) शब्द - उपयुक्त चार नय वस्तु को ध्यान में रखकर विचार करते हैं, अतः इन्हें अर्थ नय कहते हैं / शब्द नय और शेष अन्य दो नय शब्द-सम्बन्धी विचार प्रस्तुत करते हैं / अतः ये तीनों इस दृष्टि से शब्द नय कहलाते हैं / शब्दनय पर्यायवाची शब्दों को एकार्थक स्वीकार करता है। मगर उनमें यदि काल, लिंग, कारक, वचन या उपसर्ग की भिन्नता हो तो, उन्हें एकार्थक नहीं माना जाता / (6) समभिरूढ़ - यह शब्दनय से भी आगे बढ़कर व्युत्पत्ति के भेद से भी वस्तु-भेद को स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ, इसमें नृप और भूप एकार्थक नहीं है / इसमें शब्द भेद से अर्थ भेद माना गया