________________ 20 जैन दर्शन में अस्तित्व की अवधारणा भेद वाली छोटी-बड़ी अनेक परम्पराएँ हैं। उनमें पुरुष, पुरुष जैसी समान प्रतीति का विषय और एक पुरुष शब्द प्रतिपाद्य जो सदृश प्रवाह है, वह व्यञ्जनपर्याय है और उस पुरुष रुप सदृश प्रवाह में जो सूक्ष्मतम भेद है, वह अर्थपर्याय है। व्यञ्जनपर्याय को व्यक्त एवं विभाव पर्याय भी कहा जाता है तथा अर्थपर्याय को स्वभाव एवं अव्यक्त पर्याय भी कहा जाता है / द्रव्य की व्यवहार जगत में प्रस्फुटित अवस्थाएँ व्यञ्जन पर्याय हैं / व्यञ्जन पर्याय व्यवहार्य है। संसार का सारा व्यवहार इस पर्याय पर ही निर्भर करता है। उपयोगिता की दृष्टि से व्यवहार जगत में व्यञ्जन पर्याय का बहुत महत्त्व है। अर्थपर्याय एवं द्रव्य तो इन्द्रियज्ञान के विषय ही नहीं बन सकते तथा इनके द्वारा व्यवहार जगत संचालित नहीं हो सकता / व्यवहार में उपयोगी व्यञ्जन पर्याय है। वस्तु को जब विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से देखते हैं, तब उसका पर्यायात्मक स्वरुप हमारे समक्ष होता है। जब उसको संश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से निहारते है, उसका द्रव्यात्मक स्वरूप हमारे दृष्टिपथ में आता है / "अपर्ययं वस्तु समस्यमानद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम्" (अन्ययोगव्यच्छेदिका 23) वस्तु का स्वरुप उभयात्मक है। ज्ञाता या वक्ता अपनी आवश्यकता के अनुसार वस्तु के विवक्षित धर्म को प्रधान एवं अन्य को गौण कर देता है / यह प्रधानता या गौणता वस्तु जगत में नहीं है, वहाँ तो वस्तु का जो स्वरुप है वैसा ही रहता है, किंतु उपयोगिता के क्षेत्र में आने पर उपयोगकर्ता उन धर्मों को मुख्य एवं प्रधान बना देता है / वस्तु की उभयात्मक की सिद्धि प्रधानता एवं गौणता के आधार पर ही होती है। "अर्पितानर्पितसिद्धेः" (तत्त्वार्थसूत्र 5/31) अस्तित्व परिवर्तन एवं अपरिवर्तन का समवाय है / 'अथिरे पलोई थिरे नो पलोई' (भगवती, 1/440) वस्तु का स्थिर अंश परिवर्तित नहीं होता, अस्थिरांश परिवर्तन का विषय बनता है। जैन परिणामवाद के सिद्धान्त के अनुसार द्रव्य और पर्याय दोनों में परिवर्तन होता हैं / पर्याय जो नष्ट हो गई है, उसका पुनरागमन नहीं होता / द्रव्य जो सर्व पर्यायों में अनुस्यूत रहता है वह भी परिणाम का विषय बनता है / द्रव्य परिवर्तन में गुजरकर भी अपने अस्तित्व को नहीं छोड़ता जैन-दर्शन के अनुसार द्रव्य का नवीनीकरण होने पर भी वह स्थिर रहता है /