________________ 28 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा गुण वस्तु का पर्याय विशेष ही है, यदि गुण की पर्याय से पृथक् सत्ता होती तो द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय की तरह आगमों में गुणार्थिक नय का भी उल्लेख होता। आगमों में नय के दो ही प्रकार उपलब्ध है, अतः गुण का पर्याय से भिन्न अस्तित्व नहीं माना जा सकता / सिद्धसेन गुण और पर्याय के सम्बन्ध में अभेदवादी है / अधिकांश जैनाचार्यों ने गुण और पर्याय की पृथक् सत्ता स्वीकार की है / गुण और पर्याय के स्वरुप के संदर्भ में विचार करते हैं, तब गुण और पर्याय का वैविध्य स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है / गुण द्रव्य के साथ निरन्तर सहगामी है, इसके विपरीत पर्याय का द्रव्य के साथ उसी रुप में सहगमन नहीं है / उसका निरन्तर नया-नया उत्पाद होता रहता है। पर्याय, द्रव्य एवं गुण दोनों का आश्रय लेती है अर्थात् द्रव्य एवं गुण दोनों के ही पर्याय होती हैं / ___ वस्तु के अभेदात्मक स्वरुप का बोधक द्रव्य है, उसके भेदात्मक स्वरुप को पर्याय अभिव्यक्त करता है / भेद के बिना व्यवहार का संचालन नहीं हो सकता / व्यवहार जगत में वस्तु का भेदात्मक स्वरुप अधिक स्फुट होता है / वस्तु में भेद संक्षेप में दो प्रकार का होता है - 'व्यञ्जननियत' और 'अर्थनियत' सन्मतितर्क प्रकरण में इस तथ्य को अभिव्यक्त करते हुए कहा गया - "जो उण समासओ च्चिय वंजणणिअओ य अत्यणिअओ य" व्यञ्जननियत विभाग शब्द सापेक्ष होता हैं, तथा अर्थनियत विभाग शब्द निरपेक्ष होता है / अर्थनियत विभाग शब्द का वाच्य नहीं बन सकता / वस्तु के शब्द नियत व्यवहार को व्यञ्जनपर्याय एवं अर्थनियतं व्यवहार को अर्थपर्याय कहा जाता है। अर्थपर्याय सभी द्रव्यों में होती हैं, वह वस्तु मात्र का स्वाभाविक परिणमन है / व्यञ्जनपर्याय पुद्गल एवं कर्मबद्ध जीव के ही होती है, अन्य द्रव्यों में नहीं होती है / वस्तु का स्थूल एवं कालान्तर स्थायी भेद जो शब्द का वाच्य बन सकता है, वह व्यञ्जनपर्याय है - "स्थूलः कालान्तरस्थायी शब्दानां संकेतविषयो व्यञ्जनपर्यायः" (जैन सिद्धान्त दीपिका) ___ वस्तु के सामान्य स्वरुप पर कल्पित अनन्त भेदों की परम्परा में जितना सदृश परिणाम प्रवाह व्यञ्जनपर्याय कहलाता है। वस्तु का जो परिणाम शब्द का विषय नहीं बनता, अनभिलाप्य रहता है, किंतु प्रतिक्षण वस्तु में परिवर्तन होता रहता है, वह अर्थपर्याय है। अर्थपर्याय शब्द एवं संकेत का विषय नहीं बन सकती / वह सूक्ष्म एवं वर्तमानवर्ती ही होती है / वस्तु का वह परिवर्तन जो इन्द्रियज्ञान का विषय नहीं बनता वह अर्थपर्याय है "सूक्ष्मो वर्तमानवी अर्थपरिणामः अर्थपर्यायः" (जैन सिद्धान्त दीपिका) प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण परिणमन हो रहा है। वस्तु प्रतिक्षण नई-नई अवस्थाओं को धारण कर रही हैं, वह परिवर्तन इतना सूक्ष्म होता है कि उसको शब्द अपना विषय नहीं बना सकता / स्थूल उदाहरण के द्वारा व्यञ्जन एवं अर्थपर्याय को समझा जा सकता है / जैसे चेतन पदार्थ का "जीवत्व" सामान्य स्वरुप है। उसकी काल, कर्म आदि उपाधिकृत संसारित्व, मनुष्यत्व, पुरुषत्व आदि