________________ जैन दर्शन की द्रव्य, गुण एवं पर्याय की अवधारणा का समीक्षात्मक विवेचन सागरमल जैन वस्तुस्वरूप और पर्याय पर्याय की अवधारणा जैन दर्शन की एक विशिष्ट अवधारणा है / जैन दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त अनेकान्तवाद है। किन्तु अनेकान्त का आधार पर्याय की अवधारणा है। सामान्यतया पर्याय शब्द परि+आय से निष्पन्न है / मेरी दृष्टि जो परिवर्तन को प्राप्त होती है, वही पर्याय है / राजवार्तिक (1/33/1/95/ 6) 'परि समन्तादायः पर्याय', के अनुसार जो सर्व ओर से नवीनता को प्राप्त होती है, वही पर्याय है। यह होना (becoming) है / वह सत्ता की परिवर्तनशीलता की या सत् के बहु आयामी (Multi dimentional) होने की सूचक है / वह यह बताती है कि अस्तित्व प्रति समय परिणमन या परिवर्तन को प्राप्त होता है, इसलिए यह भी कहा गया है कि जो स्वभाव या विभाव रूप परिणमन करती है, वही पर्याय है / जैन दर्शन में अस्तित्व या सत् को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक या परिणामी नित्य माना गया है / उत्पाद-व्यय का जो सतत प्रवाह है, वही पर्याय है और जो इन परिवर्तनों के स्वस्वभाव से च्युत नहीं होता है, वही द्रव्य है। अन्य शब्दों में कहें तो अस्तित्व में जो अर्थक्रियाकारित्व है, गत्यात्मकता है, परिणामीपन या परिवर्तनशीलता है, वही पर्याय है। पर्याय अस्तित्व की क्रियाशीलता की सूचक है। वह परिवर्तनों के सातत्य की अवस्था है। अस्तित्व या द्रव्य दिक् और काल में जिन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होता रहता है, जैन दर्शन के अनुसार यही अवस्थाएँ पर्याय हैं अथवा सत्ता का परिवर्तनशील पक्ष पर्याय है / बुद्ध के इस कथन का कि "क्रिया है, कर्ता नहीं' का आशय यह नहीं है कि वे किसी क्रियाशीलतत्व का निषेध करते हैं / उनके इस कथन का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि क्रिया से भिन्न कर्ता नहीं है / सत्ता और परिवर्तन में पूर्ण तादात्म्य है / सत्ता से भिन्न परिवर्तन और परिवर्तन से भिन्न सत्ता की स्थिति नहीं है। परिवर्तन और परिवर्तनशील अन्योन्याश्रित हैं, दूसरे शब्दों में वे सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं / वस्तुतः बौद्ध दर्शन का सत् सम्बन्धी यह दृष्टिकोण जैन दर्शन में सत्ता को अनुच्छेद और अशाश्वत कहा गया है अर्थात् वे भी न उसे एकान्त अनित्य मानते हैं और न एकान्त नित्य / वह न अनित्य है