________________ जैन दर्शन की द्रव्य, गुण एवं पर्याय की अवधारणा का समीक्षात्मक विवेचन को परिभाषित किया है। पंचास्तिकायसार (10) में वे कहते हैं कि द्रव्य सत् लक्षण वाला है। इसी परिभाषा को और स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार (15-96) में वे कहते हैं, जो अपरित्यक्त स्वभाव वाला उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त तथा तथा गुण-पर्याय सहित है, उसे द्रव्य कहा जाता है / इस प्रकार कुन्दकुन्द ने द्रव्य की परिभाषा के सन्दर्भ में उमास्वाति के सभी लक्षणों को स्वीकार कर लिया है / तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति की विशेषता यह है कि उन्होंने गुणपर्यायवत् द्रव्य कहकर, जैन दर्शन के भेदअभेदवाद को पुष्ट किया है / यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य की यह परिभाषा भी वैशेषिकसूत्र के 'द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं सत्ता' (1/2 / 8) नामक सूत्र के निकट ही सिद्ध होती है / उमास्वाति ने इस सूत्र में कर्म के स्थान पर पर्याय को रख दिया है। जैन दर्शन के सत् सम्बन्धी सिद्धान्त की चर्चा में हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि द्रव्य या सत्ता परिवर्तनशील होकर भी नित्य है / इसी तथ्य को मीमांसा दर्शन में इस रूप में स्वीकार किया गया है - वर्द्धमानकभंगेन, रुचकः क्रियते यदा / तदापूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाय्युत्तरार्थिनः // 21 // हेमार्थिनस्तु माध्यस्थं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् / नोत्पादस्थितिभंगानामभावेसन्मति त्रयम् // 22 // न नाशेन विना शोको, नोत्पादेन विना सुखम् / स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्य नित्यता // 23 // (मीमांसाश्लोक वार्तिक पृ-६१) अर्थात् वर्द्धमानक (बाजूबंद) को तोड़कर, रुचकहार बनाने में वर्द्धमानक को चाहने वाले को शोक, रुचक चाहने वाले को हर्ष और स्वर्ण चाहने वाले को न हर्ष और न शोक होता है। उसका तो माध्यस्थ भाव रहता है। इससे सिद्ध होता है कि वस्तु या सत्ता उत्पाद, भंग और स्थिति रूप होती है, क्योंकि नाश के अभाव में शोक, उत्पाद के अभाव में सुख (हर्ष) और स्थिति के अभाव में माध्यस्थ भाव नहीं हो सकता है / इससे यही सिद्ध होता है मीमांसा दर्शन भी जैन दर्शन के समान ही वस्तु को उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक मानता है / परिणमन यह द्रव्य का आधारभूत लक्षण है, किन्तु इस प्रक्रिया में द्रव्य अपने मूल स्वरूप का पूर्णतः परित्याग नहीं करता है / स्व-स्वरूप का परित्याग किये बिना विभिन्न अवस्थाओं को धारण करने से ही द्रव्य को नित्य कहा जाता है / किन्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाले और नष्ट होने वाले पर्यायों की अपेक्षा से उसे अनित्य भी कहा जाता है / उसे इस प्रकार भी समझाया जाता है कि मृत्तिका अपने स्व-जातीय धर्म का परित्याग किये बिना घट आदि को उत्पन्न करती है / घट की उत्पत्ति में पिण्ड पर्याय का विनाश होता है। जब तक पिण्ड नष्ट नहीं होता तब तक घट उत्पन्न नहीं होता, किन्तु इस उत्पाद और व्यय में भी मृत्तिका लक्षण यथावत् बना रहता है / वस्तुतः कोई भी द्रव्य अपने स्वलक्षण, स्व-स्वभाव अथवा स्व-जातीय धर्म का पूर्णतः परित्याग नहीं करता है / द्रव्य अपने गुण या स्व-लक्षण की अपेक्षा से नित्य होता है, क्योंकि स्व-लक्षण का त्याग सम्भव नहीं है / अतः यह स्व