________________ 40 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा असम्बन्धित क्षणिक सत्ताओं की अवधारणा से व्यक्तित्व की एकात्मकता का ही विच्छेद हो जायेगा, जिसके अभाव में नैतिक उत्तरदायित्व और कर्मफल व्यवस्था ही अर्थविहीन हो जायेगी, इसी प्रकार एकान्त ध्रौव्यता को स्वीकार करने पर भी इस जगत में चल रहे उत्पत्ति और विनाश के क्रम को समझाया नहीं जा सकता। जैन दर्शन में सत् के अपरिवर्तनशील पक्ष को द्रव्य और गुण तथा परिवर्तनशील पक्ष को पर्याय कहा जाता है। अग्रिम पृष्ठों में हम द्रव्य, गुण और पर्याय के सह सम्बन्ध के बारे में चर्चा करेंगे। द्रव्य और पर्याय का सहसम्बन्ध हम यह पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि जैन परस्परा में सत् और द्रव्य को पर्यायवाची माना गया है। मात्र यही नहीं, उसमें सत् के स्थान पर द्रव्य ही प्रमुख रहा है / आगमों में सत् के स्थान पर अस्तिकाय और द्रव्य इन दो शब्दों का ही प्रयोग देखा गया है / जो अस्तिकाय है वे निश्चय ही द्रव्य हैं / इन दोनों शब्दों में भी द्रव्य शब्द मुख्यतः अन्य परम्पराओं के प्रभाव से जैन दर्शन में आया है, उसका अपना मूल शब्द तो अस्तिकाय ही है। इसमें 'अस्ति' शब्द सत्ता के शाश्वत पक्ष का और काय शब्द अशाश्वत पक्ष का सूचक माना जा सकता है / वैसे सत्ता को कार्य शब्द से सूचित करने की परम्परा श्रमण धारा के प्रक्रध कात्यायन आदि अन्य दार्शनिकों में भी रही है। भगवतीसत्र में द्रव्य पक्ष की शाश्वतता और पक्ष की अशाश्वतता का चित्रण उपलब्ध होता है। उसमें कहा गया है कि 'दव्वद्वाए सिय सासिया पज्जवट्टाए सिय असासया' अर्थात् अस्तित्व को द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत और पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत (अनित्य) कहा गया है। इस तथ्य को अधिक स्पष्टता से चित्रित करते हुए सन्मतितर्क में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर लिखते हैं - उपज्जति चयंति आ भावा नियमेण पज्जवनयस्स / दव्वट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पन्न अविणहूँ // अर्थात् पर्याय की अपेक्षा से अस्तित्व या वस्तु उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है, किन्तु द्रव्य की अपेक्षा से वस्तु न तो उत्पन्न होती है और न विनष्ट होती है / उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ में सत् द्रव्यलक्षणं (4/21) कहकर सत् को द्रव्य का लक्षण बताया है / इस परिभाषा से यह फलित होता है कि द्रव्य का मुख्य लक्षण अस्तित्व है। जो अस्तित्ववान् है, वही द्रव्य है। किन्तु यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना होता है कि द्रव्य शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ तो 'द्रूयते इति द्रव्य' के आधार पर उत्पाद व्यय रूप अस्तित्व को ही सिद्ध करता है। इसी आधार पर यह कहा गया है जो त्रिकाल में परिणमन करते हए भी अपने स्व-स्वभाव का पूर्णतः परित्याग न करे, उसे ही सत् या द्रव्य कहा जा सकता है / इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र (5/21) में उमास्वाति ने एक ओर द्रव्य का लक्षण सत् बताया तो दूसरी ओर सत् को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक भी बताया / यदि सत् और द्रव्य एक ही है तो फिर द्रव्य को भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक कहा जा सकता है। साथ ही उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र (5/38) में द्रव्य को परिभाषित करते हुए उसे गुण, पर्याय से युक्त भी कहा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकायसार और प्रवचनसार में इन्हीं दोनों लक्षणों को मिलाकर द्रव्य