________________ जैन दर्शन में अस्तित्व की अवधारणा 27 शब्दों में - "प्रत्येक तत्त्व नित्य और अनित्य इन दोनों धर्मों की स्वाभाविक समन्विति है / तत्त्व का अस्तित्व ध्रुव है, इसलिए वह नित्य है। ध्रुव परिणमन शून्य नहीं होता और परिणमन ध्रुव शून्य नहीं होता, इसलिए वह अनित्य है। ........ उत्पाद और व्यय ये दोनों परिणमन के आधार पर बनते हैं और ध्रौव्य उनका अन्वयीसूत्र है। .... भगवान महावीर ने प्रत्येक तत्त्व की व्याख्या परिणामी नित्यत्ववाद के आधार पर की / उनसे पूछा गया - 'आत्मा नित्य है, या अनित्य ? पुद्गल नित्य है, या अनित्य ? उन्होंने एक ही उत्तर दिया - अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता / इस अपेक्षा से वे नित्य हैं / परिणमन का क्रम कभी अवरुद्ध नहीं होता, इस दृष्टि से वे अनित्य हैं / समग्रता की भाषा में न नित्य हैं, न अनित्य, किंतु नित्यानित्य हैं / " (जैन दर्शन और अनेकान्त पृ.१७-१८) जैन दर्शन नित्यवाद को स्वीकार करता है, किंतु उसका नित्य 'परिणामी नित्य' है / परिवर्तन होने के बावजूद भी 'तद्भाव' का नाश न होना ही नित्यता है - "तद्भावाव्ययं नित्यम्" (तत्त्वार्थसूत्र 5/30) यह नित्यता परिवर्तन संयुक्त है, इसमें नित्यता का विशेष स्वरुप परिलक्षित हो रहा है / "परिणामी नित्यत्ववाद" जैन दर्शन का विशिष्ट अभ्युपगम है। पाँच अस्तिकाय निरपेक्ष अस्तित्व हैं / उनका अस्तित्व किसी अन्य सत्ता के सापेक्ष नहीं है, वे स्वतः है। उनमें होने वाले पर्यायों का सापेक्ष अस्तित्व है। "अस्तित्व में परिवर्तित होने की क्षमता है। अस्तित्व दूसरे क्षण में रहने के लिए उसके अनुरूप अपने आप में परिवर्तन करता है, और तभी वह दूसरे क्षण में अपनी सत्ता को बनाए रख सकता है / " (जैन दर्शन और अनेकान्त 21) परिवर्तन स्वाभाविक एवं प्रायोगिक दो प्रकार के होते हैं / स्वाभाविक परिवर्तन में बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती। वह वस्तु का स्वरुपगत स्वभाव है / निरन्तर वस्तु में सहज परिणमन होता रहता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं मुक्त आत्मा में स्वाभाविक परिवर्तन ही होता है। उनमें प्रायोगिक परिवर्तन नहीं होता / पुद्गल तथा कर्मबद्ध जीव के स्वाभाविक एवं प्रायोगिक दोनों ही प्रकार के परिवर्तन होते हैं / जैन पारिभाषिक शब्दावली में स्वाभाविक एवं प्रायोगिक दोनों ही प्रकार के परिवर्तन होते हैं। जैन पारिभाषिक शब्दावली में स्वाभाविक परिवर्तन को अर्थपर्याय एवं प्रायोगिक परिवर्तन को व्यञ्जनपर्याय कहा जाता है / द्रव्य, गुण एवं पर्याय का आश्रय स्थल है/आधार है / 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' (तत्त्वार्थ सूत्र) द्रव्य में सहभावी एवं क्रमभावी दो प्रकार के धर्म पाए जाते हैं / सहभावी धर्म को गुण एवं क्रमभावी धर्म को पर्याय कहा जाता है - "सहभाविनो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाः / " सामान्य एवं विशेष के भेद से गुण दो प्रकार के हैं / जो गुण सभी द्रव्यों में प्राप्त होते हैं, वे सामान्य गुण कहलाते हैं / अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व एवं अगुरुलघुत्व ये छः सामान्य गुण माने जाते हैं / "द्रव्यानुयोगतर्कणा" में 10 सामान्य गुणों का भी उल्लेख है। विशेष गुण प्रत्येक वस्तु के अपने-अपने होते हैं, उनकी संख्या 16 मानी जाती है। कुछ ग्रंथों में संख्या भेद भी हैं / सिद्धसेन दिवाकर आदि कुछ जैनाचार्य गुण और पर्याय का पृथक् अस्तित्व स्वीकार नहीं करते / उनके अनुसार