________________ द्रव्य-गुण-पर्याय : भेदाभेद समणी ऋजुप्रज्ञा भगवान महावीर ने प्रत्येक तत्त्व की व्याख्या 'परिणामी नित्यवाद' के आधार पर की है। इस सिद्धान्त के अनुसार विश्व का कोई भी तत्त्व न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य, अपितु प्रत्येक तत्त्व नित्य और अनित्य की स्वाभाविक समन्विति है / तत्त्व का अस्तित्व ध्रुव है, इसलिए वह नित्य है, किन्तु ध्रुव परिणमनशून्य नहीं होता इसलिए वह अनित्य भी है / जैन दर्शन के अनुसार उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य की समन्वित अवस्था सत् कहलाती है / द्रव्य वही है जो सत् हो / बौद्ध दार्शनिक सत् को एकान्त अनित्य एवं वेदान्ती सत् को एकान्त नित्य मानते हैं / परन्तु जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक तत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन धर्मों का समवाय है। उत्पाद और व्यय परिवर्तन के सूचक हैं तथा ध्रौव्य अपरिवर्तन अथवा स्थिरता का सूचक है / भगवती सूत्र का 'अथिरे पल्लोहई थिरे न पल्लोहई इसी तथ्य का संकेत करता है / वस्तु का अस्थिरांश उत्पादव्यय या पर्याय कहलाता है तथा स्थिरांश ध्रौव्य अथवा द्रव्य कहलाता है। द्रव्य-गुण-पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को जानने से पूर्व संक्षेप में इनके स्वरूप को जानना आवश्यक है। द्रव्य __ जैन-साहित्य में उपलब्ध द्रव्य के विवेचन को अनेक दृष्टियों से व्याख्यायित किया जा सकता (1) उत्तराध्ययन सूत्र में 'गुणाणामासओ दव्व' कहकर गुणों के पिण्ड को द्रव्य कहा गया है। (2) आचार्य उमास्वाति , कुंदकुंद-पूज्यपाद आदि ने गुण के साथ पर्याय शब्द की संयोजना करते हुए कहा - द्रव्य वह है, जो गुण-पर्याय से युक्त है। (3) तत्त्वार्थसूत्र में 'उत्पाद व्यय धौव्य युक्तं सत् सद् द्रव्य लक्षणम्' कहकर द्रव्य का लक्षण सत् किया।