________________ द्रव्य-गुण-पर्याय : भेदाभेद 35 गुण-पर्याय का भेदाभेद - ___ गुण और पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में दार्शनिकों में मतैक्य नहीं है / उमास्वाति और कुंदकुंद ने गुण के अतिरिक्त पर्याय को भी द्रव्य के लक्षण में सम्मिलित किया है, अतः स्पष्ट है कि वे दोनों में भेद, स्वीकार करते हैं / पूज्यपाद ने भी गुण और पर्याय में भेद, स्वीकार किया है / 'के गुणाः के पर्यायः अन्वयिनो गुणाः व्यतिरेकिनः पर्यायः / ' पूज्यपाद ने द्रव्य-गुण और पर्याय का स्वरूप बताने वाली एक प्राचीन गाथा भी उद्धृत की है - गुण इति दव्वविहीणं दव्वविकारो हि पज्जवो भणिदो / तेहि अणूणं दव्वं अजुदपसिद्ध हवे दव्वं // 7 यह गाथा किस ग्रंथ की है, बतलाना कठिन है / पर पूज्यपाद के ग्रन्थ में उद्धृत होने से इसकी प्राचीनता असंदिग्ध रूप से मानी जा सकती है। इस गाथा में उन्होंने गुण और पर्याय का अर्थभेद सिद्ध किया है। अमृतचन्द्र, वादी-देव, विद्यानन्द आदि ने गुण एवं पर्याय में भेद स्वीकार किया है / गुणपर्याय धर्म हैं / धर्मी धर्म से कथंचित् भिन्न होता है। उदाहरणतः जीव द्रव्य है, ज्ञान उसका गुण है तथा घटज्ञान, पटज्ञान उसकी पर्याय है। धर्म-अधर्म द्रव्य है, गति-स्थिति में सहायक होना उसका गुण है तथा गति-स्थितिशील पदार्थों के साथ सम्बन्ध होना उनकी पर्याय है। पुद्गल द्रव्य है, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये उसके गुण हैं तथा घट-पट आदि उसकी पर्याय हैं / काल द्रव्य है वर्तना उसका गुण है, सेकेस्राण्ड, मिनट, घण्टा आदि उसकी पर्याय हैं / गुण-पर्याय ये दो पृथक् शब्द ही उसके भेद की सूचना दे रहे हैं। इस सन्दर्भ में सिद्धसेन दिवाकर का एक नया प्रस्थान जैन तत्त्वज्ञान में शुरू होता है / उन्होंने गुण और पर्याय इन दोनों शब्दों को एकार्थक स्थापित किया है / उन्होंने स्पष्ट लिखा है - दो उण णया भगवया दव्वहि-पज्जवट्ठिया नियया / एत्तो य गुणविसेसे गुणद्वियणओ वि जुज्जंतो // जं पुण अरिहया तेसु तेसु सुत्तेसु गोयमाईण / पज्जवसण्ण णियमा वागरिया तेण पज्जादा // 28 अर्थात् भगवान ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो ही नय आगम में बताये हैं / यदि पर्याय से पृथक् गुण होता तो आगम में गुणार्थिक नय की भी चर्चा होती / अर्हतों ने उन-उन सूत्रों में गौतम आदि के समक्ष पर्याय संज्ञा निश्चित करके उसी का विवेचन किया है, अतः ऐसा मानना चाहिए कि पर्याय से भिन्न गुण नहीं हैं / द्रव्यानुयोग तर्कणा में भी सन्मति के इस कथन का समर्थन हुआ है / जैसे 'तैल की धारा' इस वाक्य में तैल और धारा दो पृथक् वस्तु नहीं है, वैसे ही गुण और पर्याय भी परमार्थतः भिन्न नहीं हैं / आचार्य हरिभद्र ने भी इसी अभेदवाद का समर्थन किया। आचार्य हेमचन्द्र ने तो प्रमाण के विषय का निरूपण करते समय सूत्र में गुण पद को स्थान ही नहीं दिया / और न ही गुण पर्याय शब्दों के अर्थ विषयक भेदाभेद की चर्चा की / इससे स्पष्ट होता है कि वे भी अभेद के ही समर्थक हैं। यशोविजयजी ने भी इसी अभेदपक्ष को स्थापित किया /