________________ जैन दर्शन में अस्तित्व की अवधारणा 25 अवास्तविक है वह मायाजन्य है / "ब्रह्म सत्यं जगत्मिथ्या" का सिद्धान्त उनके चिन्तन का महत्त्वपूर्ण घटक है / माया के कारण संसार का नानात्व दृष्टिगम्य होता है / माया ब्रह्म विरोधी है। सांख्य एवं योग द्वारा स्वीकृत पुरुष भी वेदान्त के ब्रह्म की तरह कूटस्थ नित्य एवं अपरिणामी है। उनके अनुसार परिणाम मात्र प्रकृति में होता है / क्षणिकवाद अर्थात् एकान्त पर्यायवाद के समर्थक बौद्ध हैं। इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। इनका द्रव्य जैसी किसी भी सत्ता में विश्वास नहीं हैं। ये द्रव्य को काल्पनिक/संवृत्ति सत् मानते हैं / वेदान्त दर्शन में परिवर्तन को विवर्त, बौद्ध में प्रतीत्य समुत्पाद, सांख्य में परिणाम एवं न्यायवैशेषिक में उसे आरम्भवाद कहा जाता है। भारतीय दर्शन के क्षेत्र में ऐसे भी दार्शनिक हैं जो The Philosophy of Being और The Philosophy of Becoming दोनों का एक साथ सापेक्ष अस्तित्व स्वीकार करते हैं / इस सिद्धान्त के समर्थक जैन चिंतक हैं। उनके अनुसार अस्तित्व द्रव्यपर्यायात्मक है / नित्यता एवं परिवर्तन दोनों युगपत् वस्तु के स्वभाव है / उत्पाद एवं व्यय भी उतने ही सत्य है, जितनी ध्रुवता / ध्रुवता भी उतनी ही सत्य जितने उत्पाद एवं व्यय / नित्यता एवं अनित्यता के एक साथ अस्तित्व के बिना वस्तु जगत की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती / अस्तित्व उभयात्मक है / जैन विचारणा के अनुसार 'द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु' (प्रमाणमीमांसा) वस्तु का स्वरूप द्रव्य पर्यायात्मक है / पर्याय से रहित द्रव्य एवं द्रव्य से रहित पर्याय का अस्तित्व नहीं है। द्रव्यं पर्यायवर्जितं, पर्याया द्रव्यवर्जिताः / क्व कदा केन किंरुपा दृष्टा मानेन केन वा // (स्याद्वादमंजरी 5) जैन दर्शन में सत्, द्रव्य, तत्त्व, तत्त्वार्थ एवं पदार्थ आदि शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में होता रहा है। जो सत् रुप पदार्थ है, वही द्रव्य है। जैन परम्परा में सत् को परिभाषित करते हुए कहा गया 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' (तत्त्वार्थसूत्र 5/29) उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवता का सहावस्थान जिसमें है, वही सत् है एवं सत् ही द्रव्य का लक्षण है, "सद् द्रव्यलक्षणम्" जो द्रव्य है, वही सत् है, तथा जो सत् है, वही द्रव्य है। पंचास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द भी इसी तथ्य को उद्घाटित करते हुए कहते दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं / गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू // सत्ता और द्रव्य परस्पर अनन्य है / गुण एवं पर्याय भी द्रव्य से पृथक् नहीं है / द्रव्य एवं पर्याय की पृथक्-पृथक् सत्ता नहीं है / मात्र प्रज्ञा से उसकी पृथक् कल्पना की जा सकती है, द्रव्य एवं पर्याय दोनों ही वस्तु के स्वरूप हैं / द्रव्य के प्रदेश जितने हैं, उतने ही रहेंगे, द्रव्य के प्रदेश न उत्पन्न होते हैं और न नष्ट होते हैं, इसलिए वे ध्रुव हैं / द्रव्य के प्रदेशों में परिणमन होता है, वह उत्पाद एवं व्यय है / अतः वह अनित्य भी है।