________________ 18 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा निवृत्ति और प्रायश्चित (5) कायोत्सर्ग - शरीर से ममत्व हटाने का अभ्यास (6) प्रत्याख्यान - बुरे कर्मों का त्याग / __(9) परिषह - ऊपर बताये गये विधान साधारण लोगों के लिये हैं, पर संन्यासियों के लिये कुछ अधिक कठोर नियम बनाये गये हैं / प्रत्येक संन्यासी को बाईस प्रकार के कष्टों को सहन करना पड़ता है, जिन्हें परिषह कहते हैं / ये निम्नानुसार हैं - भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि को सहन करना, नग्न रहना, याचना नहीं करना, रति नहीं करना, किसी भी वस्तु का लोभ नहीं करना, मच्छर आदि जीवजन्तुओं को काटने देना, रोग होने देना, दुःख नहीं करना, द्वेष नहीं करना, अच्छी जगह सोने को न मिले तो दुःख न करना, दूसरों के क्रोध करने पर भी क्षमा करना, कोई मारे तो दुःख नहीं करना, आवश्यक वस्तुयें न मिलें तो दुःख नहीं करना, चलने में कष्ट होने पर व पैरों में कंटकादि लगने पर दुःख न करना, शरीर पर मैल रहने का दःख न मानना. कोई निन्दा करे तो उसे सहना, अपने ज्ञान के अभिमान को रोकना, सिद्धि न मिलने पर दुःख न करना, कोई अपनी प्रशंसा या आपकी निन्दा करे तो समान भाव रखना, किसी प्रकार की मसीबत सामने आये तो सहन करना और कर्तव्य से च्यत न होना। जैन धर्म की मोक्ष-साधना-विधि विश्व की कठोरतम साधनाविधि है। इसमें जिन व्रतों, संयमों का विधान है, उनका पालन करने के लिये एक विशेष तरह की जीवन-पद्धति आवश्यक है। जैन साधु वैराग्य और त्याग की साक्षात् प्रतिमा होते है। उन्हें जीवन-पर्यन्त श्रमणत्व बनाये रखने के लिये निरन्तर जाग्रत रहने की आवश्यकता होती है / संलेखना व्रत - जैन धर्म का सबसे अनुपम व्रत स्वेच्छा से मृत्यु को अंगीकार करना है, जिसे संलेखना व्रत कहते हैं / यहाँ मृत्यु को मोक्ष-प्राप्ति में सहायक के रूप में स्वीकार किया गया है / महावीर स्वामी का कथन है, 'मृत्यु से भयभीत होना अज्ञान का फल है / मृत्यु कोई विकराल दैत्य नहीं है / मृत्यु मनुष्य का मित्र है, और उसके जीवन भर की कठोर साधना को सत्फल की ओर ले जाती है। मृत्यु सहायक न बने तो मनुष्य ऐहिक धर्मानुष्ठान का पारलौकिक फल - स्वर्ग और मोक्ष - कैसे प्राप्त कर सकता है ? जैन धर्म का सन्देश यह है कि जब तक जीओ, विवेक और आनन्द से जीओ, ध्यान और समाधि की तन्मयता में जीओ, अहिंसा और सत्य के प्रसार के लिये जीओ और जब मृत्यु आये तब आत्मसाधना की पूर्णता के लिए पुनर्जन्म में अपने आध्यात्मिक लक्ष्य सिद्धि के लिये मृत्यु का भी समाधिपूर्वक वरण करो / ' मृत्यु के समय यदि साधक मोह का त्याग नहीं कर पाया तो उसके समस्त प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं और वह सिद्धि से वंचित रह जाता है / अतः इसके लिये अभ्यास करने का विधान है। अठारह प्रकार की मृत्युओं में विभेद करके समाधि-मरण को सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है। समाधिमरण अंगीकार करने वाला महासाधक सब प्रकार की मोह-ममता को दूर करके, शुद्ध आत्मा-स्वरूप के चिन्तन में लीन होकर समय-यापन करता है / कर्मवाद- सभी भारतीय धर्मों में एक ऐसे तत्त्व को स्वीकार किया गया है, जो जीव को प्रभावित करता है। उसे स्वीकार किये बिना जीवों में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाली विषमता की, तथा एक ही जीव