Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
उस-उस धर्मपन्थ की देह है। अब यह देखना है कि धर्म की आत्मा क्या हैं? आत्मा अर्थात् चेतना या जीवन । सत्य, प्रेम, निःस्वार्थता, उदारता और विनय-विवेक आदि सद्गुण धर्म की आत्मा है। देह चाहे अनेक और भिन्नभिन्न हो, परन्तु आत्मा सर्वत्र एक ही होती है। एक ही आत्मा अनेक देहो द्वारा व्यक्त होती है; अथवा यो कहे कि एक ही आत्मा अनेक देहो मे जीवन धारण करती है, जीवन बहाती है ।
___(द० अ० चि० भा० १, पृ० १२२)
धर्म यानी सत्य की प्राप्ति के लिए बेचैनी-उत्कट अभीप्सा-और विवेकी समभाव तथ इन दो तत्त्वो के आधार पर निर्मित होनेवाला जीवनव्यवहार । यही धर्म पारमार्थिक है । दूसरे धर्म की कोटि मे गिने जानेवाले विधि-निषेध, क्रियाकाण्ड, उपासना के प्रकार आदि सब व्यावहारिक धर्म हैं । ये तब तक और उतने ही अश मे यथार्थ धर्म के नाम के पात्र है, जब तक और जितने अश मे ये उक्त पारमार्थिक धर्म के साथ अभेद्य सम्बन्ध रखते है । पारमार्थिक धर्म जीवन की मूलभूत एव अदृश्य वस्तु है । उसका अनुभव या साक्षात्कार तो धार्मिक व्यक्तियो को ही होता है, जब कि व्यावहारिक धर्म दृश्य होने से परगम्य है । पारमार्थिक धर्म का सम्बन्ध न हो तो चाहे जितने प्राचीन और बहुसम्मत सभी धर्म वस्तुत. धर्माभास
(द० अ० चि० भा० १, पृ० २८)
धर्म के दो स्वरूप है । पहला तात्त्विक-सद्गुणात्मक है, जिसमे सामान्यतः किसी का मतभेद नही; दूसरा व्यावहारिक बाह्यप्रवृत्तिरूप है, जिसमे विभिन्न प्रकार के मतभेद अनिवार्य है। जो तात्त्विक एव व्यावहारिक धर्म के बीच रहा हुआ भेद समझते है, जो तात्त्विक और व्यावहारिक धर्म के पारस्परिक सम्बन्ध के बारे मे विचार-विमर्श कर सकते है। सक्षेप में, तात्त्विक और व्यावहारिक धर्म के समुचित पृथक्करण की तथा