Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण मानना, न कि ईश्वरीय या अपौरुषेय रूप से स्वीकृत किसी खास भाषा मे रचित ग्रन्थो को।
५. योग्यता और गुरुपद की कसौटी एक मात्र जीवन की आध्यात्मिक शुद्धि, न कि जन्मसिद्ध वर्णविशेष। इस दृष्टि से स्त्री और शूद्र तक का धर्माधिकार उतना ही है, जितना एक ब्राह्मण और क्षत्रिय पुरुष का।
६. मद्य-मास आदि का धार्मिक और सामाजिक जीवन मे निषेध ।
ये तथा इनके जैसे लक्षण, जो प्रवर्तक-धर्म के आचारो और विचारो से जुदा पडते थे, वे देश मे जड जमा चुके थे और दिन-ब-दिन विशेष बल पकडते जाते थे।
निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय न्यूनाधिक उक्त लक्षणो को धारण करनेवाली अनेक सस्थाओ और सम्प्रदायों में एक ऐसा पुराना निवर्तक-धर्मी सम्प्रदाय था, जो महावीर के पहले अनेक शताब्दियो से अपने खास ढङ्ग से विकास करता जा रहा था। उसी सम्प्रदाय मे पहले नाभिनन्दन ऋषभदेव, यदुनन्दन नेमिनाथ और काशीराजपुत्र पार्श्वनाथ हो चुके थे या वे उस सम्प्रदाय मे मान्य पुरुष बन चुके थे। उस सम्प्रदाय के समय-समय पर अनेक नाम प्रसिद्ध रहे। यति, भिक्षु, मुनि, अनगार, श्रमण आदि जैसे नाम तो उस सम्प्रदाय के लिए व्यवहृत होते थे, पर जब दीर्घ तपस्वी महावीर उस सम्प्रदाय के मुखिया बने तब सम्भवत. वह सम्प्रदाय निर्ग्रन्थ नाम से विशेष प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि निवर्तक-धर्मानुयायी पन्थो मे ऊँची आध्यात्मिक भूमिका पर पहुंचे हुए व्यक्ति के वास्ते 'जिन' शब्द साधारण रूप से प्रयुक्त होता था, फिर भी भगवान् महावीर के समय मे और उनके कुछ समय बाद तक भी महावीर का अनुयायी साधु या गृहस्थवर्ग 'जैन' (जिनानुयायी) नाम से व्यवहृत नही होता था। आज जैन शब्द से महावीरपोषित सम्प्रदाय के 'त्यागी' व 'गृहस्थ' सभी अनुयायियों का जो बोध होता है इसके लिए पहले 'निग्गथ' और 'समणोवासग' आदि जैसे शब्द व्यवहृत होते थे।
अन्य सम्प्रदायों का जैन-संस्कृति पर प्रभाव ' इन्द्र, वरुण आदि स्वर्गीय देव-देवियो की स्तुति, उपासना के स्थान