Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 177
________________ जैनधर्म का प्राण १५५ बन जाता है । दिन-रात चोर और चोरी की भावना करनेवाला मनुष्य कभी प्रामाणिक ( साहूकार ) नही बन सकता । इसी तरह विद्या और विद्वान् की भावना करनेवाला अवश्य कुछ-न-कुछ विद्या प्राप्त कर लेता है । ast के प्रति ऐसा बर्ताव करना क जिससे उनके प्रति अपनी लघुता तथा उनका बहुमान प्रकट हो, वही नमस्कार है । इसके द्वैत और अद्वैत, ऐसे दो भेद है । विशिष्ट स्थिरता प्राप्त न होने से जिस नमस्कार मे ऐसा भाव हो कि मैं उपासना करनेवाला हूँ और अमुक मेरी उपासना का पात्र है, वह द्वैत-नमस्कार है । रागद्वेष के विकल्प नष्ट हो जाने पर चित्त की इतनी अधिक स्थिरता हो जाती है, जिसमे आत्मा अपने को ही अपना उपास्य समझता है और केवल स्वरूप का ही ध्यान करता है, वह अद्वैत- नमस्कार है । इन दोनो में अद्वैत - नमस्कार श्रेष्ठ है, क्योकि द्वैत-नमस्कार तो अद्वैत का साधनमात्र है । ? प्रo - मनुष्य की अन्तरग भावभक्ति के कितने भेद है उ०- दो : एक सिद्ध-भक्ति और दूसरी योग-भक्ति । सिद्धो के अनन्त गुणो की भावना भाना सिद्ध-भक्ति है और योगियों ( मुनियों) के गुणों की भावना भाना योगि भक्ति । , प्र० - पहिले अरिहन्तो को और पीछे सिद्धादिको को नमस्कार करने का क्या सबब है ? उ०- वस्तु को प्रतिपादन करने के क्रम दो होते है । एक पूर्वानुपूर्वी और दूसरा पश्चानुपूर्वी । प्रधान के बाद अप्रधान का कथन करना पूर्वानुपूर्वी है और अप्रधान के बाद प्रधान का कथन करना पश्चानुपूर्वी है । पाँचों परमेष्ठियो मे 'सिद्ध' सबसे प्रधान है और 'साधु' सबसे अप्रधान, क्योकि सिद्ध-अवस्था चैतन्य - शक्ति के विकास की आखिरी हद है और साधुअवस्था उसके साधन करने की प्रथम भूमिका है । इसलिए यहाँ पूर्वानुपूर्वी क्रम से नमस्कार किया गया है । यद्यपि कर्म - विनाश की अपेक्षा से 'अरिहन्तो' से 'सिद्ध' श्रेष्ठ है, तो भी कृतकृत्यता की अपेक्षा से दोनों समान ही है और व्यवाहर की अपेक्षा से तो 'सिद्ध' से 'अरिहन्त' ही श्रेष्ठ हैं क्योकि 'सिद्धों' के परोक्ष स्वरूप को बतलानेवाले 'अरिहन्त' ही तो

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