Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
है।' वैशेषिकदर्शन मे ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानकर, उसके स्वरूप का वर्णन किया है। योगदर्शन मे ईश्वर के अधिष्ठान से प्रकृति का परिणाम-जड जगत का फैलाव माना है। श्री शङ्कराचार्य ने भी अपने ब्रह्म सूत्र के भाष्य मे, उपनिषद् के आधार पर जगह-जगह ब्रह्म को सृष्टि का उपादानकारण सिद्ध किया है ।
परन्तु जीवों से फल भोगवाने के लिए जैन दर्शन ईश्वर को कर्म का प्रेरक नही मानता, क्योंकि कर्मवाद का मन्तव्य है कि जैसे जीव कर्म करने मे स्वतन्त्र है वैसे ही उसके फल को भोगने में भी। कहा है कि --
'य. कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च । __ ससर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षण ॥१॥
इसी प्रकार जैन दर्शन ईश्वर को सृष्टि का अधिष्ठाता भी नही मानता, क्योकि उसके मत से सृष्टि अनादि-अनन्त होने से वह कभी अपूर्व उत्पन्न नही हुई तथा वह स्वय ही परिणमनशील है, इसलिए ईश्वर के अधिष्ठान की अपेक्षा नही रखती।
ईश्वर सष्टिकर्ता और कर्मफलदाता क्यों नहीं ? यह जगत् किसी समय नया नही बना, वह सदा ही से है। हॉ, इसमे परिवर्तन हुआ करते है। अनेक परिवर्तन ऐसे होते है कि जिनके होने में मनुष्य आदि प्राणीवर्ग के प्रयत्न की अपेक्षा देखी जाती है, तथा ऐसे परिवर्तन भी होते है कि जिनमे किसी के प्रयत्न की अपेक्षा नही रहती । वे जड़ तत्त्वो के तरह-तरह के सयोगो से-उष्णता, वेग, क्रिया आदि शक्तियों से बनते रहते है। उदाहरणार्थ मिट्टी, पत्थर आदि चीजो के इकट्ठा होने से छोटे-मोटे टीले या पहाड का बन जाना, इधर-उधर से पानी का प्रवाह मिल जाने से उनका नदी के रूप में बहना, भाप का पानी के रूप में बरसना
१. गौतमसूत्र अ० ४, आ० १, सू० १। २. प्रशस्तपादभाष्य पृ० ४८ । ३. समाधिपाद सू० २४ के भाष्य व टीका। ४. ब्रह्मसूत्र २-१-२६ का भाष्य'; ब्रह्मसूत्र अ० २-३-६ ।