Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
१८१ ली। इधर से जैन विचारक विद्वानों ने भी उनका सामना किया। इस प्रचण्ड सघर्ष का अनिवार्य परिणाम यह आया कि एक ओर से अनेकान्तदृष्टि का तर्कबद्ध विकास हुआ और दूसरी ओर से उसका प्रभाव दूसरे विरोधी साप्रदायिक विद्वानो पर भी पडा । दक्षिण हिन्दुस्तान मे प्रचण्ड दिगम्बराचार्यों और प्रकाण्ड मीमासक तथा वेदान्त के विद्वानो के बीच शास्त्रार्थ की कुश्ती हुई उससे अन्त मे अनेकान्तदृष्टि का ही असर अधिक फैला। यहाँ तक कि रामानुज जैसे बिलकुल जैनत्व विरोधी प्रखर आचार्य ने शङ्कराचार्य के मायावाद के विरुद्ध अपना मत स्थापित करते समय आश्रय तो सामान्यत उपनिषदो का लिया, पर उनमे से विशिष्टाद्वैत का निरूपण करते समय अनेकान्तदृष्टि का उपयोग किया, अथवा यो कहिए कि रामानुज ने अपने ढग से अनेकान्तदृष्टि को विशिष्टाद्वैत की घटना मे परिणत किया और औपनिपद तत्त्व का जामा पहनाकर अनेकान्तदृष्टि मे से विशिष्टाद्वैतवाद खडा करके अनेकान्तदृष्टि की ओर आकर्षित जनता को वेदान्तमार्ग पर स्थित रखा। पुष्टिमार्ग के पुरस्कर्ता वल्लभ, जो दक्षिण हिन्दुस्तान मे हुए, उनके शुद्धाद्वैत-विषयक सब तत्त्व है तो औपनिषदिक, पर उनकी सारी विचारसरणी अनेकान्तदृष्टि का नया वेदान्तीय स्वॉग है। इधर उत्तर और पश्चिम हिन्दुस्तान में जो दूसरे विद्वानो के साथ श्वेताम्बरीय महान् विद्वानो का खण्डनमण्डन-विषयक द्वन्द्व हुआ, उसके फलस्वरूप अनेकान्तवाद का असर जनता मे फैला और साप्रदायिक ढग से अनेकातवाद का विरोध करनेवाले भी जानते-अनजानते अनेकान्तदृष्टि को अपनाने लगे। इस तरह वाद रूप मे अनेकातदृष्टि आज तक जैनो की ही बनी हुई है, तथापि उसका असर किसी न किसी रूप में अहिसा की तरह विकृत या अर्धविकृत रूप मे हिन्दुस्तान के हरएक भाग मे फैला हुआ है। इसका सबूत सब भागो के साहित्य मे से मिल सकता है।
(द० औ० चि० ख० २, पृ० १५१-१५२, १५५-१५६)