Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
(२) वैसा करके वस्तु के स्वरूप का विनिश्चय करना और यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना यह उसका साध्य है।
(३) बुद्धि मे भासित होनेवाले किसी भी धर्म के बारे में मुख्य तीन ही विकल्प सभव है और चाहे जितने शाब्दिक परिवर्तन से सख्या बढाई जाय तो भी वे सात ही हो सकते है।
(४) जितने धर्म उतनी ही सप्तभगी है। यह वाद अनेकान्तदृष्टि का विचार-विषयक एक सबूत है। इसके दृष्टान्त के रूप में जो शब्द, आत्मा आदि दिये है उसका कारण यह है कि प्राचीन आर्य विचारक आत्मा का विचार करते थे और बहुत हुआ तो आगम प्रामाण्य की चर्चा मे शब्द को लेते थे।
(५) वैदिक आदि दर्शनो मे भी अनेकान्तदृष्टि का स्वरूप देखा जा सकता है।
(६) प्रमाण से बाधित न हो उनसब दृष्टियो का संग्रह करने का इसके पीछे उद्देश्य है, फिर भले ही वे विरुद्ध मानी जाती हो ।
(द० अ० चि० भा० २, पृ० १०६२-१०६४)
महत्त्व के चार भंगों का अन्यत्र उपलब्ध निर्देश सप्तभगीगत सात भगों में शुरू के चार ही महत्त्व के है क्योकि वेद, उपनिषद् आदि ग्रन्थो मे तथा 'दीघनिकाय' के ब्रह्मजालसूत्र मे ऐसे चार विकल्प छूटे-छूटे रूप मे या एक साथ निर्दिष्ट पाये जाते हैं। सात भंगों में जो पिछले तीन भग हैं उनका निर्देश किसी के पक्षरूप में कही देखने में नही आया। इससे शुरू के चार भग ही अपनी ऐतिहासिक भूमिका रखते हैं ऐसा फलित होता है।
१. ये सात भग इस प्रकार है । (१) स्याद् अस्ति; (२) स्याद् नास्ति, (३) स्याद् अस्ति-नास्ति, (४) स्याद् अवक्तव्य, (५) स्याद् अस्ति-अवक्तव्य, (६) स्याद् नास्ति-अवक्तव्य, (७) स्याद् अस्ति-नास्तिअवक्तव्य।