Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 214
________________ १९२ जैनधर्म का प्राण ही नहीं हो सकती। अत अवस्थाभेद मानना पड़ता है, और वही अनित्यत्व है। इस प्रकार आत्मा द्रव्य रूप से (सामान्य रूप से) नित्य होने पर भी अवस्था रूप से (विशेष रूप से) अनित्य भी है। नित्यत्व और अनित्यत्व दोनो एक ही स्वरूप से एक वस्तु मे मानने पर विरोध आता है, जैसे कि द्रव्यरूप से ही आत्मा नित्य है ऐसा मानने वाला उसी रूप से अनित्य माने तो। इसी प्रकार आत्मा नित्य, अनित्य आदि शब्द द्वारा उस-उस रूप से प्रतिपाद्य होने पर भी समग्र रूप से किसी एक शब्द से नही कही जा सकती, अत वह असमग्र रूप से शब्द का विषय होती है। फिर भी समग्र रूप से वैसे किसी शब्द का विषय नही हो सकती, अतः अवक्तव्य भी है। इस प्रकार एक नित्यत्वधर्म के आधार पर आत्मा के बारे मे नित्य, अनित्य और अवक्तव्य ऐसे तीन पक्ष-भग उचित ठहरते है। ____ इसी प्रकार एकत्व, सत्त्व, भिन्नत्व, अभिलाप्यत्य आदि सर्वसाधारण धर्मों को लेकर किसी भी वस्तु के बारे मे ये तीन भग बन सकते हैं और उन पर से सात भी बन सकते है। चेतनत्व, घटत्व आदि असाधारण धर्मों को लेकर भी सप्तभगी घटाई जा सकती है। एक वस्तु मे व्यापक या अव्यापक जितने धर्म हो उनमे से प्रत्येक को लेकर और उसका दूसरा पक्ष सोचकर सात भग घटाये जा सकते है। प्राचीन काल मे आत्मा, शब्द आदि पदार्थोमे नित्यत्व-अनित्यत्व, सत्त्व-असत्त्व, एकत्व-बहुत्व, व्यापकत्व-अव्यापकत्व आदि को लेकर परस्पर विरोधी वाद चलते थे। इन वादो का समन्वय करने की वृत्ति मे से भंगकल्पना पैदा हुई। इस भगकल्पना ने भी आगे जाकर साम्प्रदायिक वाद का रूप धारण किया और उसका सप्तभंगी में परिणमन हुआ। ___ सात से अधिक भग सम्भव नही है, इसीलिए सात की सख्या कही है। मूल तीन की विविध सयोजना करो और सात मे अन्तर्भूत न हो ऐसा कोई भग बनाओ तो जैन दर्शन सप्तभंगित्व का आग्रह कर ही नही सकता। __इसका सक्षिप्त सार अधोलिखित है : (१) तत्कालीन प्रचलित वादो का समीकरण करना-यह भावना सप्तभगी की प्रेरक है।

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