Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
View full book text
________________
२०६
जैनधर्म का प्राण
(३) तीर्थ संस्था जिस स्थान के साथ धार्मिक आत्माओ का कुछ भी सम्बन्ध रहा हो, अथवा जहा प्राकृतिक सौन्दर्य हो, अथवा इन दोनो मे से एक भी न हो, फिर भी जहा किसी सम्पन्न व्यक्ति ने पुष्कल द्रव्य व्यय करके इमारत की, स्थापत्य की, मूर्ति की या वैसी कोई विशेषता लाने का प्रयत्न किया हो वहाँ प्राय तीर्थ खडे हो जाते है। ग्राम एव नगरो के अतिरिक्त समुद्रतट, नदीकिनारे, दूसरे जलाशय तथा छोटे-बडे पहाड प्राय. तीर्थ के रूप मे प्रसिद्ध है। __जैन तीर्थ जलाशयो के पास नही आये ऐसा तो नही है; गगा जैसी बडी नदी के किनारे पर तथा दूसरे जलाशयो के पास सुन्दर तीर्थ आये है, फिर भी स्थान के विषय मे जैन तीर्थों की विशेषता पहाडो की पसन्दगी मे है। पूर्व, पश्चिम, दक्षिण या उत्तर कही भी भारत मे जाओ, तो वहाँ जैनो के प्रधान तीर्थ टीलो और पहाड़ों पर आये है। केवल श्वेताम्बर सम्प्रदाय की ही नही, दिगम्बर सम्प्रदाय की भी स्थान-विषयक खास पसन्दगी पहाड़ो ही की है । जहाँ श्वेताम्बरो का तनिक भी सम्बन्ध नही है और उनका आना-जाना भी नही है वैसे कई दिगम्बरो के खास तीर्थ दक्षिण भारत मे है और वे भी पहाड़ी प्रदेश मे आये है। इस पर से इतना ही फलित होता है कि तीर्थ के प्राणभूत सन्त पुरुषो का मन कैसे-कैसे स्थानो मे अधिक रमता था और वे किस प्रकार के स्थान पसन्द करते थे। भक्तवर्ग हो या मनुष्यमात्र हो, उनको एकान्त और नैसर्गिक सुन्दरता कैसी अच्छी लगती है यह भी इन तीर्थस्थानो के विकास पर से जाना जा सकता है। भोगमय और कार्यरत जीवन बिताने के बाद, अथवा बीच-बीच मे कभी-कभी आराम एव आनन्द के लिए मनुष्य किन और कैसे स्थानो की ओर दृष्टि डालता है यह हम तीर्थस्थानो की पसन्दगी पर से जान सकते है।
तीर्थों के विकास मे मूर्तिप्रचार का विकास है और मूर्तिप्रचार के साथ ही मूर्तिनिर्माण-कला तथा स्थापत्यकला सम्बद्ध है। हमारे देश के स्थापत्य मे जो वैशिष्टय एवं मोहकता है उसका मुख्य कारण तीर्थस्थान और मूर्तिपूजा है। भोगस्थानो मे स्थापत्य आया है सही, पर उसका मूल धर्मस्थानों मे और तीर्थस्थानो मे ही है।