Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 234
________________ २१२ ___ जैनधर्म का प्राण तथा सार्मिक बन्धुओं की योग्य प्रतिपत्ति-भक्ति, (५) जीवो को अभयदान देने का प्रयत्न, (६) मनमुटाव भूलकर सबके साथ सच्ची मैत्री साधने की भावना। श्वेताम्बर के दोनो फिर्को मे यह अष्टाह्निका ‘पजूसन' (पर्यषण) के नाम से ही प्रसिद्ध है और सामान्यत. दोनों मे यह अष्टाह्निका एक साथ ही शुरू होती है तथा पूर्ण भी होती है, परन्तु दिगम्बर परम्परा मे आठ के स्थान पर दस दिन माने जाते है और पजूसन के स्थान पर उसे 'दशलक्षणी' कहते है। उसका समय भी श्वेताम्बर परम्परा की अपेक्षा भिन्न है। श्वेताम्बर परम्परा के पजूसन पूर्ण होते ही दूसरे दिन से दिगम्बरों का दशलक्षणी पर्व शुरू होता है। (द० अ० चि० भा० १, पृ० ३३५-३३७) इस अठवाड़े में हम भगवान महावीर की पुण्यकथा सुनने और उसके मर्म पर विचार करने के लिए पूर्ण अवकाश प्राप्त कर सकते है। भगवान ने अपनी कठोर साधना के द्वारा जिन सत्यो का अनुभव किया था, उन्होने स्वय ही जिन सत्यों को समकालीन सामाजिक परिस्थिति को सुधारने की दृष्टि से व्यवहार मे रखा था और लोग तदनुसार जीवन जीएँ इस हेतु से जिन सत्यो का समर्थ रूप से प्रचार किया था वे सत्य सक्षेप मे तीन है : (१) दूसरे के दु ख को अपना दु.ख समझकर जीवनव्यवहार चलाना, जिससे जीवन मे सुखशीलता और विषमता के हिंसक तत्त्वो का प्रवेश न हो। (२) अपनी सुखसुविधा का, समाज के हित के लिए, पूर्ण बलिदान देना, जिससे परिग्रह बन्धनरूप न होकर लोकोपकार मे परिणत हो। (३) सतत जागृति और जीवन का अन्तनिरीक्षण करते रहना, जिससे अज्ञान अथवा निर्बलता के कारण प्रवेश पानेवाले दोषो पर निगरानी रखी जा सके और आत्म-पुरुषार्थ मे न्यूनता न आने, पावे । (द० अ० चि० भा० १, पृ० ४८३-४८४) संवत्सरी : महापर्व सांवत्सरिक पर्व एक महापर्व है। दूसरे किसी भी पर्व की अपेक्षा वह महत् है। इसकी महत्ता किस मे है यह हमें समझना चाहिए।

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