Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
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किसी भी व्यक्ति को सच्ची शान्ति का अनुभव करना हो, सुविधा या असुविधा, आपत्ति या सम्पत्ति मे स्वस्थता बनाये रखनी हो और व्यक्तित्व को खण्डित न करके उसकी आन्तरिक अखण्डितता सुरक्षित रखनी हो तो उसका एकमात्र और मुख्य उपाय यही है कि वह व्यक्ति अपनी जीवनप्रवृत्ति के प्रत्येक क्षेत्र का सूक्ष्मता से अवलोकन करे । इस आन्तरिक अवलोकन का उद्देश्य यही हो कि कहाँ-कहाँ, किस-किस प्रकार से, किस-किस के साथ छोटी या बडी भूल हुई है यह वह देखे । जब कोई मनुष्य सच्चे हृदय से और नम्रतापूर्वक अपनी भूल देख लेता है तब उसे वह भूल, चाहे जितनी छोटी हो तो भी, पहाड़ जैसी बड़ी लगती है और उसे वह सह नही सकता । अपनी भूल और कमी का भान मनुष्य को जागृत और विवेकी बनाता है । जागृति और विवेक से मनुष्य को दूसरो के साथ सम्बन्ध कैसे रखना चाहिए और उनको किस तरह बढाना - घटाना चाहिए इसकी सूझ पैदा होती है । इस प्रकार आन्तरिक अवलोकन मनुष्य की चेतना को खण्डित होने से रोकता है। ऐसा नही है कि ऐसा अवलोकन केवल त्यागी और साधु-सन्तो to ही आवश्यक हो, वह तो छोटी-बड़ी उम्र के और किसी भी रोजगार और सस्था के मनुष्य के लिए सफलता की दृष्टि से आवश्यक है, क्योकि वैसा करने से वह मनुष्य अपनी कमियों को दूर करते-करते ऊँचे उठता है और सबके मनो को जीत लेता है । यह सावत्सरिक पर्व के महत्त्व का एक मुख्य किन्तु व्यक्तिगत पक्ष हुआ, परन्तु इस महत्त्व का सामुदायिक दृष्टि से भी विचार करना चाहिए। मैं जानता हूँ वहाँ तक, सामुदायिक दृष्टि से आन्तरिक अवलोकन का महत्त्व जितना इस पर्व को दिया गया है उतना किसी दूसरे पर्व को दूसरे किसी वर्ग ने नही दिया । इस पर से समझा जा सकता है कि सामुदायिक दृष्टि से आन्तरिक अवलोकनपूर्वक अपनी-अपनी भूल का स्वीकार करना तथा जिसके प्रति भूल हुई हो उसकी सच्चे दिल से क्षमायाचना करना और उसे भी क्षमा देना सामाजिक स्वास्थ्य के लिए भी कितना महत्त्व का है ।
इसीसे जैन-परम्परा मे ऐसी प्रथा प्रचलित है कि प्रत्येक गाँव, नगर और शहर का संघ आपस - आपस मे क्षमायाचना करते है और एक-दूसरे को क्षमा प्रदान करते है, इतना ही नही, दूसरे स्थानों के संघ के साथ भी वे