Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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सप्तभंगी
सप्तभंगी और उसका आधार
भिन्न-भिन्न अपेक्षाओ, दृष्टिकोणो या मनोवृत्तियो से जो एक ही तत्त्व के नाना दर्शन फलित होते है उन्ही के आधार पर भगवाद की सृष्टि खडी होती है । जिन दो दर्शनो के विपय ठीक एक-दूसरे से बिल्कुल विरोधी जान पडते हो ऐसे दर्शनो का समन्वय बतलाने की दृष्टि से उनके विषयभूत भाव अभावात्मक दोनो अशो को लेकर उन पर जो सम्भवित वाक्य भग बनाए जाते हैं वही सप्तभगी है । सप्तभगी का आधार नयवाद है, और उसका ध्येय समन्वय है अर्थात् अनेकान्त कोटि का व्यापक दर्शन कराना है; जैसे किसी भी प्रमाण से जाने हुए पदार्थ का दूसरे को बोध कराने के लिए परार्थ-अनुमान अर्थात् अनुमानवाक्य की रचना की जाती है, वैसे ही विरुद्ध अशोका समन्वय श्रोता को समझाने की दृष्टि से भग- वाक्य की रचना भी की जाती है । इस तरह नयवाद और भगवाद अनेकान्तदृष्टि के क्षेत्र मे अपने आप ही फलित हो जाते है ।
(द० औ० चि० खं० २, पृ० १७२ )
सात भंग और उनका मूल
( १ ) भग अर्थात् वस्तु का स्वरूप बतलानेवाले वचन का प्रकार अर्थात् वाक्यरचना ।
(२) वे सात कहे जाते है, फिर भी मूल तो तीन [ ( १ ) स्याद् अस्ति, (२) स्याद् नास्ति, और (३) स्याद् अवक्तव्य ही है । अवशिष्ट चार [ (१) स्याद् अस्ति नास्ति, (२) स्याद् अस्ति - अवक्तव्य, (३) स्याद् नास्ति - अवक्तव्य, और (४) स्याद् अस्ति नास्ति - अवक्तव्य ] तो मूल भगो के पारस्परिक विविध सयोजन से होते हैं ।