Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
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(३) किसी भी एक वस्तु के बारे मे या एक ही धर्म के बारे मे भिन्नभिन्न विचारको की मान्यता मे भेद दिखाई देता है। यह भेद विरोधरूप है या नही और यदि न हो तो दृश्यमान विरोध में अविरोध किस प्रकार घटाना ? अथवा यो कहो कि अमुक विवक्षित वस्तु के बारे मे जब धर्मविषयक दृष्टि-भेद दिखाई देते हो तब वैसे भेदो का प्रमाणपूर्वक समन्वय करना और वैसा करके सभी सही दृष्टियो को उनके योग्य स्थान मे रखकर न्याय करना-इस भावना मे सप्तभगी का मूल है।
सप्तभंगी का कार्य : विरोध का परिहार उदाहरणार्थ एक आत्मद्रव्य को लेकर उसके नित्यत्व के बारे मे दृष्टिभेद है । कोई आत्मा को नित्य मानता है, तो कोई नित्य मानने से इन्कार करता है, और कोई ऐसा कहता है कि वह तत्त्व ही वचन-अगोचर है । इस प्रकार आत्मतत्त्व के बारे मे तीन पक्ष प्रसिद्ध है । इसलिए यह विचारणीय है कि क्या वह नित्य ही है और अनित्यत्व उसमे प्रमाणबाधित है ? अथवा क्या वह अनित्य ही है और नित्यत्व उसमे प्रमाणबाधित है ? अथवा उसे नित्य या अनित्य न कहकर अवक्तव्य ही कहना योग्य है ? इन तीनो विकल्पो की परीक्षा करने पर तीनो यदि सच्चे हो तो उनका विरोध दूर करना चाहिए। जब तक विरोध खडा रहेगा तब तक परस्पर विरुद्ध अनेक धर्म एक वस्तु में हैं ऐसा कहा नही जा सकता। फलत विरोधपरिहार की ओर ही सप्तभगी की दृष्टि सर्वप्रथम जाती है। वह निश्चित करती है कि आत्मा नित्य ही है, परन्तु सब दृष्टियों से नही, मात्र मूल तत्त्व की दृष्टि से वह नित्य है, क्योकि वह तत्त्व पहले कभी नहीं था और पीछे से उत्पन्न हुआ ऐसा नही है तथा वह तत्त्व मूल मे ही से नष्ट होगा ऐसा भी नहीं है। अत तत्त्वरूप से वह अनादिनिधन है और यही उसका नित्यत्व है । ऐसा होने पर भी वह अनित्य भी है, परन्तु उसका अनित्यत्व द्रव्य दृष्टि से नही किन्तु मात्र अवस्था की दृष्टि से है । अवस्थाएँ तो प्रतिसमय निमित्तानुसार बदलती रहती ही है । जिसमे कुछन-कुछ रूपान्तर न होता हो, जिसमे आन्तरिक या बाह्य निमित्त के अनुसार सूक्ष्म या स्थूल अवस्थाभेद सतत चालू न रहता हो वैसे तत्त्व की कल्पना