Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
१९७ के रूप मे स्मरण हो आया उसने वरुणसूक्त मे उस वरुणदेव की अपने सर्वशक्तिमान रक्षक के रूप मे स्तुति की। जिसे अग्नि की ज्वालाओ और प्रकाशक शक्तियो का रोमाचक सवेदन हुआ उसने अग्नि के सूक्तों की रचना की। जिसे गाढ अन्धकारवाली रात्रि का लोमहर्षक संवेदन हुआ उसने रात्रिसूक्त रचा। यही बात वाक्, स्कम्भ, काल आदि सूक्तो के बारे मे कही जा सकती है। प्रकृति के अलग-अलग रूप हो, अथवा उन में कोई दिव्य सत्त्व हो, अथवा उन सबके पीछे कोई एक परम गूढ तत्त्व हो, परन्तु भिन्न-भिन्न कवियो द्वारा की गई ये प्रार्थनाएँ दृश्यमान प्रकृति के किसी-न-किसी प्रतीक के आधार पर रची गई है। भिन्न-भिन्न प्रतीकों का अवलम्बन लेनेवाली ये प्रार्थनाएँ 'ब्रह्म' के नाम से प्रसिद्ध थी।
ब्रह्म के इस प्राथमिक अर्थ मे से फिर तो क्रमशः अनेक अर्थ फलित हुए। जिन यज्ञो मे इन सूक्तो का विनियोग होता वे भी 'ब्रह्म' कहलाये। उनके निरूपक ग्रन्थ और विधिविधान करनेवाले पुरोहितो का भी ब्रह्मा, ब्रह्मा या ब्राह्मण के रूप मे व्यवहार होने लगा। प्राचीन काल में ही प्रकृति के विविध पहलू या दिव्य सत्त्व एक ही तत्त्वरूप माने जाने लगे थे और ऋग्वेद के प्रथम मण्डल मे ही स्पष्ट कहा है कि इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि आदि भिन्नभिन्न नामो से जिनकी स्तुति की जाती है वे आखिर में तो एक ही तत्त्वरूप है और वह तत्त्व यानी सत् । इस प्रकार प्रकृति के अनेक प्रतीक अन्ततोगत्वा एक सत्रूप परम तत्त्व मे एकाकार हुए और यह विचार अनेक रूमो मे आगे विकसित और विस्तृत होता गया।
श्रमण और ब्राह्मण विचारधारा की एक भूमिका समभावना के उपासक 'समन' या 'समण' कहलाये और सस्कृत में उसका रूपान्तर 'शमन' या 'श्रमण' हुआ, परन्तु 'सम' शब्द संस्कृत ही होने से उसका सस्कृत में 'समन' रूप बनता है। 'ब्रह्मन्' के उपासक
और चिन्तक ब्राह्मण कहलाये। पहला वर्ग मुख्यतया आत्मलक्षी रहा; दूसरे वर्ग ने विश्वप्रकृति मे से प्रेरणा प्राप्त की थी और उसी के प्रतीकों के द्वारा वह सूक्ष्मतम तत्त्व पर्यन्त पहुंचा था, इसलिए वह मुख्य रूप से प्रकृतिलक्षी रहा । इस प्रकार दोनो वर्गों की बुद्धि का आद्य प्रेरकस्थान भिन्न-भिन्न था,