Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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ब्रह्म और सम
जहाँ तक भारतीय तत्त्वविचार का सम्बन्ध है, ऐसा कहा जा सकता है कि उस तत्त्वविचार के दो भिन्न-भिन्न उद्गमस्थान है एक है स्वात्मा और दूसरा है प्रकृति, अर्थात् पहला आन्तरिक है और दूसरा बाह्य है।
समता का प्रेरक तत्त्व 'सम' किसी अज्ञात काल मे मनुष्य अपने आपके बारे मे विचार करने के लिए प्रेरित हुआ : मै स्वय क्या है? कैसा हूँ ? दूसरे जीवो के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है ?-ऐसे प्रश्न उसके मन मे पैदा हुए । इनका उत्तर पाने के लिए वह अन्तर्मुख हुआ और अपने सशोधन के परिणामस्वरूप उसे ज्ञात हुआ कि 'मैं एक सचेतन तत्त्व हूँ और दूसरे प्राणीवर्ग मे भी वैसी ही चेतना है।' इस विचार ने उसे अपने और दूसरे प्राणीवर्ग के बीच समता का दर्शन कराया। इस दर्शन मे से समभाव के विविध अर्थ और उसकी भूमिकाएँ तत्त्वविचार मे उपस्थित हुई। बुद्धि का यह प्रवाह 'सम' के रूप मे प्रसिद्ध है।
'ब्रह्म' और उसके विविध अर्थ बुद्धि का दूसरा प्रभवस्थान बाह्य प्रकृति है। जो विश्वप्रकृति के विविध पहलुओ, घटनाओ और उनके प्रेरक बलों की ओर आकर्षित हुए थे उनको उसमे से कवित्व की अथवा यों कहे कि कवित्वमय चिन्तन की भूमिका प्राप्त हुई। उदाहरणार्थ ऋग्वेद के जिस कवि ने उष. के उल्लासप्रेरक एवं रोमाचक दर्शन का सवेदन किया उसने रक्तवस्त्रा तरुणी के रूप मे उसका उषःसूक्त मे गान किया। समुद्र की उछलती तरगो और तूफानो के बीच नौकायात्रा करनेवाले जिस कवि को समुद्र के अधिष्ठायक वरुण का रक्षक