Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण का तत्त्व इन्द्रियो और मनोवृत्तियो को जीतने मे है, और ब्राह्मणधर्म का तत्त्व विश्व की विशालता को आत्मा मे उतारने मे है।"
__ इतने सक्षेप पर से हम यह जान सकते है कि बुद्धि अन्त मे एक ही सत्य मे विराम लेती है और साथ ही यह भी समझ सकते हैं कि व्यवहार के चाहे जितने भेदो और विरोधो का अस्तित्व क्यो न हो, परन्तु परमार्थदृष्टि कभी लुप्त नही होती।
[गुजराती साहित्य परिषद के अहमदाबाद मे सम्पन्न १६५६ के अक्तूबर के अधिवेशन मे तत्वशान विभाग क अध्यक्षपद से दिये गये भाषण मे से ]