Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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नयवाद
जैन तत्वज्ञान की परिभाषाओ मे नयवाद की परिभाषा का भी स्थान है । नय पूर्ण सत्य की एक बाजू को जाननेवाली दृष्टि का नाम है। ऐसे नय के सात प्रकार जैन शास्त्रो मे पुराने समय से मिलते है, जिन मे प्रथम नय का नाम है 'नगम'।
'नगम' शब्द का मूल और अर्थ कहना न होगा कि नैगम शब्द 'निगम' से बना है, जो निगम वैशाली मे थे और जिनके उल्लेख सिक्को में भी मिले है। 'निगम' समान कारोबार करनेवालो की श्रेणीविशेष है। उसमे एक प्रकार की एकता रहती है और सब स्थूल व्यवहार एक-सा चलता है। उसी 'निगम' का भाव लेकर उसके ऊपर से नैगम शब्द के द्वारा जैन परम्परा ने एक ऐसी दृष्टि का सूचन किया है जो समाज मे स्थूल होती है और जिसके आधार पर जीवनव्यवहार चलता है।
अवशिष्ट छः नय, उनका आधार और स्पष्टीकरण नैगम के बाद सग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवभूत ऐसे छ शब्दो के द्वारा आशिक विचारसरणियो का सूचन आता है। मेरी राय मे उक्त छहों दृष्टियॉ यद्यपि तत्त्वज्ञान से सवन्ध रखती है, पर वे मूलत: उस समय के राज्य-व्यवहार और सामाजिक-व्यावहारिक आधार पर फलित की गई है। इतना ही नहीं, बल्कि सग्रह, व्यवहारादि ऊपर सूचित शब्द भी तत्कालीन भाषाप्रयोगो से लिए है। अनेक गण मिलकर राज्यव्यवस्था या समाजव्यवस्था करते थे, जो एक प्रकार का समुदाय