Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण दर्शन सत्य है तो दोनो को ही न्याय मिले इसका भी क्या उपाय है ? इसी चिंतनप्रधान तपस्या ने भगवान् को अनेकान्तदृष्टि सुझाई, उनका सत्यसशोधन का सकल्प सिद्ध हुआ। उन्होने उस मिली हुई अनेकान्तदृष्टि की चाबी से वैयक्तिक और सामष्टिक जीवन की व्यावहारिक और पारमार्थिक समस्याओ के ताले खोल दिये और समाधान प्राप्त किया। तब उन्होंने जीवनोपयोगी विचार और आचार का निर्माण करते समय उस अनेकान्त दृष्टि को निम्नलिखित मुख्य शर्तो पर प्रकाशित किया और उसके अनुसरण का अपने जीवन द्वारा उन्ही शर्तों पर उपदेश दिया। वे शर्ते इस प्रकार है
१ राग और द्वेषजन्य सस्कारो के वशीभूत न होना अर्थात् तेजस्वी मध्यस्थभाव रखना
२. जब तक मध्यस्थभाव का पूर्ण विकास न हो तब तक उस लक्ष्य की ओर ध्यान रखकर केवल सत्य की जिज्ञासा रखना।
३. कैसे भी विरोधी भासमान पक्ष से न घबराना और अपने पक्ष की तरह उस पक्ष पर भी आदरपूर्वक विचार करना तथा अपने पक्ष पर भी विरोधी पक्ष की तरह तीन समालोचक दृष्टि रखना।
४. अपने तथा दूसरो के अनुभवो मे से जो-जो अश ठीक अँचें, चाहे वे विरोधी ही प्रतीत क्यो न हो, उन सबका विवेक-प्रज्ञा से समन्वय करने की उदारता का अभ्यास करना और अनुभव बढने पर पूर्व के समन्वय मे जहा गलती मालूम हो वहाँ मिथ्याभिमान छोड़कर सुधार करना और इसी क्रम से आगे बढना।
अनेकान्तदृष्टि का खण्डन और उसका व्यापक प्रभाव जब दूसरे विद्वानो ने अनेकान्तदृष्टि को तत्त्वरूप मे ग्रहण करने की जगह साप्रदायिकवाद रूप मे ग्रहण किया तब उसके ऊपर चारो ओर ते आक्षेपो के प्रहार होने लगे। बादरायण जैसे सूत्रकारो ने उसके खण्डन के लिए सूत्र रच डाले और उन सूत्रो के भाष्यकारो ने उसी विषय मे अपने भाष्यो की रचनाएँ की। वसुबन्धु, दिडनाग, धर्मकीर्ति और शातरक्षित जैसे बड़े-बड़े प्रभावशाली बौद्ध विद्वानों ने भी अनेकान्तवाद की पूरी खबर