Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण अन्तो का परित्याग करने पर भी अनेकान्त के अवलम्बन में भिन्न-भिन्न विचारको का भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण सम्भव है। अतएव हम न्याय, साख्ययोग और मीमासक जैसे दर्शनो मे भी विभज्यवाद तथा अनेकान्त शब्द के व्यवहार से निरूपण पाते है । अक्षपाद कृत 'न्यायसूत्र' के प्रसिद्ध भाष्यकार वात्स्यायन ने २--१-१५, १६ के भाष्य मे जो निरूपण किया है वह अनेकान्त का स्पष्ट द्योतक है और 'यथादर्शन विभागवचनम्' कहकर तो उन्होने विभज्यवाद के भाव को ही ध्वनित किया है । हम साख्यदर्शन की सारी तत्त्वचिन्तन-प्रक्रिया को ध्यान से देखेंगे, तो मालूम पडेगा कि वह अनेकान्त दृष्टि से निरूपित है। 'योगदर्शन' के ३-१३ सूत्र के भाष्य तथा तत्त्ववैशारदी विवरण को ध्यान से पढने वाला साख्य-योग दर्शन की अनेकान्तदृष्टि को यथावत् समझ सकता है। कुमारिल ने भी 'श्लोकवार्तिक' और अन्यत्र अपनी तत्त्व-व्यवस्था मे अनेकान्तदृष्टि का उपयोग किया है ।' उपनिषदो के समान आधार पर केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि जो अनेक वाद स्थापित हुए है वे वस्तुत अनेकान्त-विचारसरणी के भिन्नभिन्न प्रकार है। तत्त्वचिन्तन की बात छोडकर हम मानवयूथो के जुदे-जुदे आचार-व्यवहारो पर ध्यान देगे, तो भी उनमे अनेकान्तदृष्टि पायेगे । वस्तुत. जीवन का स्वरूप ही ऐसा है कि जो एकान्तदृष्टि मे पूरा प्रकट हो ही नहीं सकता। मानवीय व्यवहार भी ऐसा है कि जो अनेकान्त दृष्टि का अन्तिम अवलम्बन बिना लिये निभ नही सकता।
(द० औ० चि० ख० २, पृ० ५००-५०१)
अनेकान्तदृष्टि का आधार : सत्य __ जब सारे जैन विचार और आचार की नीव अनेकान्तदृष्टि ही है तब पहले यह देखना चाहिए कि अनेकान्तदृष्टि किन तत्त्वो के आधार पर खड़ी की गई है ? विचार करने और अनेकान्तदृष्टि के साहित्य का अवलोकन करने से मालूम होता है कि अनेकान्तदृष्टि सत्य पर खड़ी है। यद्यपि सभी महान् पुरुष सत्य को पसन्द करते है और सत्य की ही खोज तथा सत्य के
१. श्लोकवार्तिक, आत्मवाद २९-३० आदि ।