Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 209
________________ जैनधर्म का प्राण १८७ निरूपण एक नही है, तथापि सभी मोक्षलक्षी दर्शनो मे निश्चयदृष्टिसम्मत आचार व चारित्र एक ही है, भले ही परिभाषा, वर्गीकरण आदि भिन्न हों। यहाँ तो यह दिखाना है कि जैन परम्परा मे जो निश्चय और व्यवहाररूप दो दृष्टियाँ मानी गई है वे तत्त्वज्ञान और आचार दोनो क्षेत्रो मे लागू की गई है। इतर सभी भारतीय दर्शनो की तरह जैन दर्शन मे भी तत्त्वज्ञान और आचार दोनो का समावेश है। तत्त्वज्ञान और आचार में उनको भिन्नता जब निश्चय-व्यवहार नय का प्रयोग तत्त्वज्ञान और आचार दोनो में होता है तब सामान्य रूप से शास्त्रचिन्तन करनेवाला यह अन्तर जान नहीं पाता कि तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में किया जानेवाला निश्चय और व्यवहार का प्रयोग आचार के क्षेत्र मे किये जानेवाले वैसे प्रयोग से भिन्न है और भिन्न परिणाम का सूचक भी है। तत्त्वज्ञान की निश्चयदृष्टि और आचार विषयक निश्चयदृष्टि ये दोनो एक नही। इसी तरह उभय विषयक व्यवहारदृष्टि के बारे मे भी समझना चाहिए। इसका स्पष्टीकरण यो है तत्त्वलक्षी निश्चय और व्यवहार दृष्टि जब निश्चयदृष्टि से तत्त्व का स्वरूप प्रतिपादन करना हो, तो उसकी सीमा मे केवल यही बात आनी चाहिये कि जगत के मूल तत्त्व क्या है, कितने है और उनका क्षेत्र-काल आदि से निरपेक्ष स्वरूप क्या है ? और जब व्यवहारदृष्टि से तत्त्वनिरूपण इष्ट हो, तब उन्ही मूल तत्त्वो का द्रव्यक्षेत्र-काल आदि से सापेक्ष स्वरूप प्रतिपादित किया जाता है। इस तरह हम निश्चयदृष्टि का उपयोग करके जैनदर्शनसम्मत तत्त्वो का स्वरूप कहना चाहे तो सक्षेप मे यह कह सकते है कि चेतन-अचेतन ऐसे परस्पर अत्यन्त विजातीय दो तत्त्व है। दोनो एक-दूसरे पर असर डालने की शक्ति भी धारण करते है। चेतन का सकोच-विस्तार द्रव्य-क्षेत्र-काल आदि सापेक्ष होने से व्यवहारदृष्टि से सिद्ध होता है । अचेतन पुद्गल का परमाणुरूपत्व या एकप्रदेशावगाह्यत्व निश्चयदृष्टि का विषय है, जब कि उसका स्कन्धपरिणमन या अपने क्षेत्र मे अन्य अनन्त परमाणु और स्कन्धों को अवकाश देना यह व्यवहारदृष्टि का निरूपण है।

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