Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 199
________________ जैनधर्म का प्राण १७७ प्रकार वह अपने स्वरूप तथा सजीवता के बारे मे भी मुक्न मन से विचार करने को कहता है। जितनी विचार की उन्मुक्तता, स्पष्टता और तटस्थता, उतना ही अनेकान्त का बल या जीव । ___ (द० औ० चि० भा० २, पृ० ८७३) कोई भी विशिष्ट दर्शन हो या धर्म-पन्थ, उसकी आधारभून--उसके मूल प्रवर्तक पुरुष की-एक खास दृष्टि होती है, जैसे कि--शकराचार्य की अपने मतनिरूपण मे 'अद्वैतदृष्टि' और भगवान् बुद्ध की अपने धर्म-पन्थ प्रवर्तन मे 'मध्यमप्रतिपदादृष्टि' खास दृष्टि है । जैन दर्शन भारतीय दर्शनो मे एक विशिष्ट दर्शन है और साथ ही एक विशिष्ट धर्म-पन्थ भी है, इसलिए उसके प्रवर्तक और प्रचारक मुख्य पुरुपो की एक खास दृष्टि उनके मूल मे होनी ही चाहिए और वह है भी। यही दृष्टि अनेकान्तवाद है । तात्त्विक जैन-विचारणा अथवा आचार-व्यवहार जो कुछ भी हो, वह सब अनेकान्तदृष्टि के आधार पर किया जाता है। अथवा यो कहिए कि अनेक प्रकार के विचारो तथा आचारो मे से जैन विचार और जैनाचार क्या है ? कैसे हो सकते है ? इन्हे निश्चित करने व कसने की एकमात्र कसौटी भी अनेकान्तदृष्टि ही है। (द० औ० चि० ख० २, पृ० १४९) अन्य दर्शनों में अनेकान्तदृष्टि हम सभी जानते है कि बुद्ध अपने को विभज्यवादी' कहते है । जैन आगमो मे महावीर को भी विभज्यवादी कहा है। विभज्यवाद का मतलब पृथक्करणपूर्वक सत्य-असत्य का निरूपण व सत्यो का यथावत् समन्वय करना है। विभज्यवाद का ही दूसरा मतलब अनेकान्त है, क्योकि विभज्यवाद मे एकान्तदृष्टिकोण का त्याग है। बौद्ध परम्परा में विभज्यवाद के स्थान मे मध्यममार्ग शब्द विशेष रूढ़ है। हमने ऊपर देखा कि १. मज्झिमनिकाय सुत्त ९९ । २. सूत्रकृताग १. १४. २२ ।

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