Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
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का-अपराधो का-फल भोग रहे है दूसरे । एक हत्या करता है और दूसरा पकड़ा जाकर फासी पर लटकाया जाता है। एक करता है चोरी और पकडा जाता है दूसरा। अब इस पर विचार करना चाहिए कि जिनको अपनी अच्छी या बुरी कृति का बदला इस जन्म मे नही मिला, उनकी कृति क्या यों ही विफल हो जाएगी? इन सब बातो पर ध्यान देने से यह माने बिना सतोष नही होता कि चेतन एक स्वतत्र तत्त्व है। वह जानते या अनजानते जो अच्छा-बुरा कर्म करता है उसका फल उसे भोगना ही पडता है और इसलिए उसे पुनर्जन्म के चक्कर मे घूमना पडता है । बुद्ध भगवान ने भी पुनर्जन्म माना है। पक्का निरीश्वरवादी जर्मन पण्डित निशे कर्मचक्रकृत पुनर्जन्म को मानता है। यह पुनर्जन्म का स्वीकार आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने के लिए प्रबल प्रमाण है।
कर्म-तव के विषय में जैनदर्शन की विशेषता जैनदर्शन में प्रत्येक कर्म की बध्यमान, सत् और उदयमान ये तीन अवस्थाएँ मानी हुई है। उन्हे क्रमश. बन्ध, सत्ता और उदय कहते है। जैनेतर दर्शनो मे भी कर्म की उन अवस्थाओ का वर्णन है। उनमें बध्यमान कर्म को 'क्रियमाण', सत्कर्म को 'सचित' और उदयमान कर्म को 'प्रारब्ध', कहा है। किन्तु जैनशास्त्र मे ज्ञानावरणीय आदिरूप से कर्म का ८ तथा १४८ भेदो मे वर्गीकरण किया है और इनके द्वारा ससारी आत्मा की अनुभवसिद्ध भिन्न-भिन्न अवस्थाओ का जैसा खुलासा किया गया है वैसा किसी भी जैनेतर दर्शन मे नही है। पातञ्जलदर्शन मे कर्म के जाति, आयु
और भोग तीन तरह के विपाक बतलाए है, परन्तु जैनदर्शन मे कर्म के संबन्ध मे किये गये विचार के सामने वह वर्णन नाममात्र का है।
आत्मा के साथ कर्म का बन्ध कैसे होता है? किन-किन कारणो से होता है ? किस कारण से कर्म मे कैसी शक्ति पैदा होती है ? कर्म अधिक से अधिक और कम-से-कम कितने समय तक आत्मा के साथ लगा रह सकता है ? आत्मा के साथ लगा हुआ भी कर्म, कितने समय तक विपाक देने में असमर्थ है ? विपाक का नियत समय भी बदला जा सकता है या नही ? यदि बदला जा सकता है तो उसके लिए कैसे आत्मपरिणाम आवश्यक है ? एक कर्म