Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
View full book text
________________
जैनधर्म का प्राण
१७१
कर्म का अनादित्व विचारवान् मनुष्य के दिल मे प्रश्न होता है कि कर्म सादि है या अनादि ? इसके उत्तर मे जैनदर्शन का कहना है कि कर्म व्यक्ति की अपेक्षा से सादि और प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है। किन्तु कर्म का प्रवाह कब से चला, इसे कोई बतला नही सकता। भविष्य के समान भूतकाल की गहराई अनन्त है। अनन्त का वर्णन अनादि या अनन्त शब्द के सिवाय और किसी तरह से होना असम्भव है इसलिए कर्म के प्रवाह को अनादि कहे बिना दूसरी गति ही नही है। कर्म-प्रवाह के अनादित्व को और मुक्त जीव के फिर से ससार मे न लौटने को सब प्रतिष्ठित दर्शन मानते हैं।
कर्मबन्ध का कारण जैनदर्शन मे कर्मबन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग से चार कारण बतलाये गए है। इनका सक्षेप पिछले दो (कषाय और योग) कारणो मे किया हुआ भी मिलता है। अधिक सक्षेप करके कहा जाय तो यह कह सकते है कि कषाय ही कर्मबन्ध का कारण है । यो तो कषाय के विकार के अनेक प्रकार है, पर उन सबका सक्षेप मे वर्गीकरण करके आध्यात्मिक विद्वानों ने उस के राग, द्वेष दो ही प्रकार किये है। अज्ञान, मिथ्याज्ञान आदि जो कर्म के कारण कहे जाते है सो भी राग-द्वेष के सबन्ध ही से। राग की या द्वेष की मात्रा बढी कि ज्ञान विपरीत रूप मे बदलने लगा। इससे शब्दभेद होने पर भी कर्मबन्ध के कारण के सबन्ध मे अन्य आस्तिक दर्शनों के साथ जैन दर्शन का कोई मतभेद नही । नैयायिक तथा वैशेषिक दर्शन मे मिथ्याज्ञान को, योगदर्शन मे प्रकृति-पुरुष के अभेद ज्ञान को और वेदान्त आदि मे अविद्या को तथा जैनदर्शन मे मिथ्यात्व को कर्म का कारण बतलाया है. परन्तु यह बात ध्यान मे रखनी चाहिए कि किसी को भी कर्म का कारण क्यो न कहा जाय, पर यदि उसमे कर्म की बन्धकता (कर्मलेप पैदा करने की शक्ति) है तो वह राग-द्वेष के सबन्ध ही से । राग-द्वेष की न्यूनता या अभाव होते ही अज्ञानपन (मिथ्यात्व) कम होता या नष्ट हो जाता है। महाभारत शान्तिपर्व के 'कर्मणा बध्यते जन्तु' इस कथन में भी कर्म शब्द का मतलब राग-द्वेष ही से है।