Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 189
________________ जैनधर्म का प्राण १६७ चलने की प्रेरणा आप ही आप होगी। अच्छा या बुरा कोई भी कर्म नष्ट नही होता, यह नीतिशास्त्र का मत और पदार्थशास्त्र का बल-परक्षण सबन्धी मत समान ही है। दोनों मतो का आशय इतना ही है कि किसी का नाश नही होता। किसी भी नीतिशिक्षा के अस्तित्व के संबन्ध में कितनी ही शङ्का क्यो न हो, पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि कर्ममत सबसे अधिक जगह माना गया है, उससे लाखो मनुष्यो के कष्ट कम हुए है और उसी मत से मनुप्यो को वर्तमान सकट झेलने की शक्ति पैदा करने तथा भविष्यजीवन को सुधारने मे उत्तेजन मिला है।" कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र का अंश है। अध्यात्मशास्त्र का उद्देश्य आत्मा-सम्बन्धी विषयो पर विचार करना है। अतएव उसको आत्मा के पारमार्थिक स्वरूप का निरूपण करने के पहले उसके व्यावहारिक स्वरूप का भी कयन करना पड़ता है। प्रश्न होता है कि दृश्यमान वर्तमान अवस्थाएँ ही आत्मा का स्वभाव क्यो नही है ? इसलिए अध्यात्मशास्त्र को आवश्यक है कि वह पहले आत्मा के दृश्यमान स्वरूप ही उपपत्ति दिखाकर आगे बढे । यही काम कर्मशास्त्र ने किया है। वह दृश्यमान सब अवस्थाओ को कर्म-जन्य वतलाकर उनसे आत्मा के स्वभाव की जुदाई की सूचना करता है। इस दृष्टि से कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र का ही एक अश है। जब यह ज्ञात हो जाता है कि ऊपर के सब रूप मायिक या वैभाविक है तब स्वयमेव जिज्ञासा होती है कि आत्मा का सच्चा स्वरूप क्या है ? कर्मशास्त्र कहता है कि आत्मा ही परमात्मा--जीव ही ईश्वर है। आत्मा का परमात्मा मे मिल जाना, इसका मतलब यह है कि आत्मा का अपने कर्मावृत परमात्मभाव को व्यक्त करके परमात्मरूप हो जाना। जीव परमात्मा का अश है, इसका मतलब कर्मशास्त्र की दृष्टि से यह है कि जीव में जितनी ज्ञान-कला व्यक्त है, वह परिपूर्ण परन्तु अव्यक्त (आवृत) चेतनाचन्द्रिका का एक अश मात्र है। कर्म का आवरण हट जाने से चेतना परिपूर्ण रूप मे प्रकट होती है। उसी को ईश्वरभाव या ईश्वरत्व की प्राप्ति समझना चाहिए। धन, शरीर आदि बाह्य विभूतियों मे आत्मबुद्धि करना, अर्थात् जड़ में

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