Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
विचार करने से अरिहन्त जैसे परम योगी की लोकोत्तर विभूति मे संदेह नहीं रहता।
व्यवहार एवं निश्चय-दृष्टि से पाँचों का स्वरूप प्र०-व्यवहार (बाह्य) तथा निश्चय (आभ्यन्तर) दोनो दृष्टि से अरिहन्त और सिद्ध का स्वरूप किस-किस प्रकार का है ?
उ.-उक्त दोनो दृष्टि से सिद्ध के स्वरूप मे कोई अन्तर नही है । उनके लिये जो निश्चय है वही व्यवहार है, क्योकि सिद्ध अवस्था मे निश्चयव्यवहार की एकता हो जाती है । पर अरिहन्त के सबन्ध मे यह बात नही है। अरिहन्त सशरीर होते है, इसलिए उनका व्यावहारिक स्वरूप तो बाह्य विभूतियो से सबन्ध रखता है और नैश्चयिक स्वरूप आन्तरिक शक्तियो के विकास से। इसलिए निश्चयदृष्टि से अरिहन्त और सिद्ध का स्वरूप समान समझना चाहिए।
प्र०-उक्त दोनों दृष्टि से आचार्य, उपाध्याय तथा साधु का स्वरूप . किस-किस प्रकार का है ? ___उ०-निश्चयदृष्टि से तीनो का स्वरूप एक-सा होता है। तीनों मे मोक्षमार्ग के आराधन की तत्परता और बाह्य-आभ्यन्तर-निर्ग्रन्थता आदि नैश्चयिक और पारमार्थिक स्वरूप समान होता है। पर व्यावहारिक स्वरूप तीनो का थोडा-बहुत भिन्न होता है । आचार्य की व्यावहारिक योग्यता सबसे अधिक होती है, क्योकि उन्हे गच्छ पर शासन करने तथा जैन शासन की महिमा को सम्हालने की जवाबदेही लेनी पडती है। उपाध्याय को आचार्यपद के योग्य बनने के लिये कुछ विशेष गुण प्राप्त करने पडते है, जो सामान्य साधुओ मे नही भी होते । .
नमस्कार का हेतु व उसके प्रकार प्र-परमेष्ठियो को नमस्कार किसलिए किया जाता है ? नमस्कार के कितने प्रकार है ?
उ०-गुणप्राप्ति के लिए। वे गुणवान् है, गुणवानों को नमस्कार करने से गुण की प्राप्ति अवश्य होती है, क्योकि जैसा ध्येय हो, ध्याता वैसा ही