Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
View full book text
________________
जैनधर्म का प्राण
१५३ अरिहन्त की अलौकिकता जैसे अरिहन्त की ज्ञान आदि आन्तरिक शक्तियाँ अलौकिक होती हैं वैसे ही उनकी बाह्य अवस्था मे भी क्या हम से कुछ विशेषता हो जाती है ?
उ.---अवश्य | भीतरी शक्तियॉ परिपूर्ण हो जाने के कारण अरिहन्त का प्रभाव इतना अलौकिक बन जाता है कि साधारण लोग इस पर विश्वास भी नहीं कर सकते । अरिहन्त का सारा व्यवहार लोकोत्तर होता है। मनुष्य, पशु, पक्षी आदि भिन्न-भिन्न जाति के जीव अरिहन्त के उपदेश को अपनी-अपनी भाषा मे समझ लेते है। सॉप, न्यौला, चूहा, बिल्ली, गाय, बाघ आदि जन्म-शत्रुप्राणी भी समवसरण मे वैर-द्वेष-वृत्ति छोडकर भ्रातृभाव धारण करते है। अरिहन्त के वचन मे जो पैतीस गुण होते हैं वे औरों के वचन मे नही होते । जहाँ अरिहन्त विराजमान होते है वहाँ मनुष्य आदिकी कौन कहे, करोडो देव हाजिर होते, हाथ जोड़े खडे रहते, भक्ति करते और अशोकवृक्ष आदि आठ प्रातिहार्यों की रचना करते है । यह सब अरिहन्त के परम योग की विभति है।
प्र०-ऐसा मानने मे क्या युक्ति है ?
उ०---अपने को जो बाते असम्भव-सी मालूम होती है वे परमयोगियों के लिए साधारण है । एक जगली भील को चक्रवर्ती की सम्पत्ति का थोडा भी ख्याल नही आ सकता। हमारी और योगियो की योग्यता मे ही बड़ा फर्क है । हम विषय के दास, लालच के पुतले और अस्थिरता के केन्द्र हैं। इसके विपरीत योगियो के सामने विपयो का आकर्षण कोई चीज नही; लालच उनको छूता तक नही, वे स्थिरता मे सुमेरु के समान होते है । हम थोड़ी देर के लिए भी मन को सर्वथा स्थिर नही रख सकते, किसी के कठोर-वाक्य को सुनकर मरने-मारने को तैयार हो जाते है, मामूली चीज गुम हो जाने पर हमारे प्राण निकलने लग जाते है, स्वार्थान्धता से औरों की कौन कहे, भाई और पिता तक भी हमारे लिये शत्रु बन जाते हैं। परमयोगी इन सव दोषो से सर्वथा अलग होते है । जब उनकी आन्तरिक दशा इतनी उच्च हो तब उक्त प्रकार की लोकोत्तर स्थिति होने में कोई अचरज नही। साधारण योगसमाधि करनेवाले महात्माओ की और उच्च चरित्रवाले साधारण लोगो की भी महिमा जितनी देखी जाती है उस पर