Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राग
१५१ भौतिक वस्तुओ के आलम्बन से होती है। भौतिक वस्तुएँ उन वृत्तियों के होने मे साधनमात्र अर्थात् निमित्तकारण है, उपादानकारण नहीं । उनका उपादानकारण आत्मतत्त्व अलग ही है। इसलिए भौतिक वस्तुओ को उक्त वृत्तियो का उपादानकारण मानना भ्रान्ति है । ऐमा न मानने मे अनेक दोष आते है। जैसे सुख, दुख, राजा-रकभाव, छोटी-बडी आयु, सत्कारतिरस्कार, ज्ञान-अज्ञान आदि अनेक विरुद्ध भाव एक ही माता-पिता की दो सन्तानो मे पाए जाते है, सो जीव को स्वतन्त्र तत्त्व बिना माने किसी तरह असन्दिग्ध रीति से घट नही सकता।
प्र०—जीव के अस्तित्व के विषय मे अपने को किस सबूत पर भरोसा करना चाहिए? ___उ०-अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक चिरकाल तक आत्मा का ही मनन करनेवाले नि स्वार्थ ऋषियो के वचन पर, तथा स्वानुभव पर । और चित्त को शुद्ध करके एकाग्रतापूर्वक विचार व मनन करने से ऐसा अनुभव प्राप्त हो सकता है।
पंच परमेष्ठी
पंच परमेष्ठी के प्रकार प्र०-क्या सब परमेष्ठी एक ही प्रकार के है या उनमे कुछ अन्तर भी है ?
उ-सब एक प्रकार के नहीं होते। स्थूल दृष्टि से उनके अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच प्रकार है। स्थूलरूप से इनका अन्तर जानने के लिए इनके दो विभाग करने चाहिए। पहले विभाग मे प्रथम दो और दूसरे विभाग मे पिछले तीन परमेष्ठी सम्मिलित है, क्योकि अरिहन्त और सिद्ध ये दोनो तो ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वीर्यादि शक्तियों को शुद्ध रूप मे पूरे तौर से विकसित किये हुए होते है, पर आचार्यादि तीन उक्त शक्तियो को पूर्णतया प्रकट किए हुए नही होते, किन्तु उनको प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील होते है। अरिहन्त और सिद्ध ये दो ही केवल पूज्य अवस्था को प्राप्त है, पूजक अवस्था को नही । इसीसे ये देवतत्त्व माने जाते हैं । इसके विपरीत आचार्य आदि तीन पूज्य, पूजक, इन दोनो अव