Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
एक जैसी प्रकृति के है ऐसा वह मानता था । और परमाणुवाद का स्वीकार करने पर भी उसमे से सिर्फ विश्व उत्पन्न ही होता है ऐसा न मानकर, प्रकृतिवादी की भाँति परिणाम और आविर्भाव माननें के कारण, वह ऐसा कहता कि परमाणुपुज मे से बाह्य विश्व स्वत परिणत होता है । इस प्रकार इस चौथे विचार प्रवाह का झुकाव परमाणुवाद की भूमिका पर प्रकृतिवाद के परिणाम की मान्यता की ओर था ।
उसकी एक विशेषता यह भी थी कि वह समस्त बाह्य विश्व को आविभविवाला न मानकर उसमे से अनेक कार्यो को उत्पत्तिशील भी मानता था । वह ऐसा भी कहता था कि बाह्य विश्व में कितनी ही वस्तुएँ ऐसी भी है,
for fair षत्न के परमाणुरूप कारणों में से उत्पन्न होती है । वैसी वस्तुएँ तिल मे से तेल की तरह अपने कारणो मे से केवल आविर्भूत होती है, परन्तु सर्वथा नयी पैदा नही होती, जबकि बाह्य विश्व में ऐसी भी बहुत-सी वस्तुएँ है, जो अपने जड कारणो मे से उत्पन्न होती है, परन्तु अपनी उत्पत्ति मे किसी पुरुष के प्रयत्न की अपेक्षा भी रखती है । जो पदार्थ पुरुष के प्रयत्न की सहायता से जन्म लेते है वे अपने जड कारणो मेतिल मे तेल की भाँति छिपे हुए नही होते, परन्तु वे तो सर्वथा नवीन ही उत्पन्न होते है | जब कोई बउई लकडियो के अलग-अलग टुकडे इकडे करके उनसे एक मेज तैयार करता है तब वह मेज लकडियो के टुकडो मे, तिल मे तेल की भाँति, छिपी नहीं होती, पर मेज बनानेवाले बडई की बुद्धि मे कल्पना के रूप मे होती है और वह लकडी के टुकडो के द्वारा मुर्तरूप धारण करती है । यदि बढई चाहता तो लकडियो के उन्ही टुकडो से मेज न बनाकर गाय, गाडी या दूसरी कोई चीज बना सकता था । तिल में से तेल निकालने की बात इससे सर्वथा भिन्न है । कोई चाहे जितना विचार करे या चाहे, तो भी वह तिल मे से घी या मक्खन नही निकाल सकता | इस प्रकार प्रस्तुत चौथा विचार प्रवाह परमाणुवादी होने पर भी एक ओर परिणाम एव आविर्भाव मानने के बारे मे प्रकृतिवादी की विचार प्रवाह के साथ मेल खाता है, तो दूसरी ओर कार्य एव उत्पत्ति के बारे मे परमाणुवादी विचार प्रवाह के साथ मेल खाता है ।
यह तो बाह्य विश्व के बारे में चौथे विचारप्रवाह की मान्यता का निर्देश
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