Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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जैनधर्म का प्राण
दूसरो का उत्पीडन अधिक होता हो, निर्बलों के अधिकार अधिक कुचले जाते हो, वह समाज अथवा वह राष्ट्र उतना ही अधिक दुखी और गुलाम होगा। इससे विपरीत, जिस समाज और जिस राष्ट्र मे एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर अथवा एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति पर जितना त्रास कम अथवा दूसरे निर्बलो के अधिकारो की जितनी अधिक रक्षा, उतना ही वह समाज और वह राष्ट्र अधिक सुखी और स्वतत्र होगा । इसी प्रकार जिस समाज और जिस राष्ट्र मे सबल व्यक्तियो की ओर से निर्बलो के लिए अपनी सुखसुविधा का जितना भोग दिया जायगा, जितनी उनकी अधिक सेवा की जायगी, उतना वह समाज और वह राष्ट्र अधिक स्वस्थ और सम्पन्न होगा। इससे उल्टा, जितनी अधिक स्वार्थवृत्ति होगी उतना ही अधिक वह समाज पामर और छिन्न-भिन्न होगा। इस प्रकार हम समाजो और राष्ट्रो के इतिहास पर से जो एक निश्चित परिणाम निकाल सकते है वह यह कि अहिंसा और दया ये दोनो जितने आध्यात्मिक हित करनेवाले तत्त्व है उतने ही वे समाज और राष्ट्र के धारक एव पोषक तत्त्व भी है।
इन दोनो तत्त्वो की जगत के कल्याण के लिए समान आवश्यकता होने पर भी अहिसा की अपेक्षा दयावृत्ति को जीवन में उतारना कुछ सरल है। अन्तर्दर्शन के बिना अहिसा को जीवन मे उतारना शक्य नहीं है, परन्तु दया तो जिन्हे अन्तर्दर्शन नहीं हुआ है ऐसे हमारे-जैसे साधारण लोगो के जीवन मे भी उतर सकती है।
अहिसा नकारात्मक होने से दूसरे किसी को त्रास देने के कार्य से मुक्त रहने में वह आ जाती है और उसमे बहुत बारीकी से विचार न किया हो तो भी उसका अनुसरण विधिपूर्वक शक्य है, जबकि दया के बारे मे ऐसा नही है। भावात्मक होने से और उसके आचरण का आधार सयोग और परिस्थिति पर रहने से दया के पालन मे विचार करना पड़ता है, बहुत सावधान रहना पड़ता है और देश-काल की स्थिति का खूब ध्यान रखना पड़ता है।
___(द० अ० चि० भा० १, पृ० ४५१-४५६)
संथारा और अहिंसा हिसा का मतलब है-प्रमाद या रागद्वेष या आसक्ति। उसका त्याग ही